रविवार, 2 नवंबर 2014

= १६६ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
नहिं मृतक नहिं जीवता, नहिं आवै नहिं जाइ ।
नहिं सूता नहिं जागता, नहिं भूखा नहिं खाइ ॥
न तहाँ चुप ना बोलणां, मैं तैं नांहीं कोइ ।
दादू आपा पर नहीं, न तहाँ एक न दोइ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह परमेश्वर अखण्ड है, अविनाशी है । उसको प्राप्त होने वाले संत भी न मरते हैं, न जन्मते हैं, न वे आते हैं, न वे जाते हैं । न अनात्म पदार्था की उनको इच्छा होती है, न उनको भोगते ही हैं । न वे अज्ञान में सोते हैं और न वह संसार की चतुरता में जागते ही हैं ॥
हे जिज्ञासुओं ! उस ब्रह्म चैतन्य के परमार्थ रूप में न तो चुप ही रहना पड़ता है, न बोलना ही बनता है; न मैं है, न तूं है; न और है; न अपना है न पराया; न वहाँ एक ही है, न वहाँ दो ही कहना बनता है । तात्पर्य यह है कि निरुपाधिक अद्वैत, सर्वसाक्षी, समष्टि चैतन्य निश्चल है । इसलिए भाव अथवा अभाव रूप से ब्रह्म का कोई भी निरूपण नहीं कर सकता है अर्थात् वह अवाच्य है ॥
न जायते म्रियते वा कदाचित् 
नायं भूत्वा भविता वा न भूय: ।
अजो नित्य: शाश्वतोSयं पुराणो 
न हन्यते हन्यमाने शरीर ।
(गीता)
(श्री दादूवाणी ~ हैरान का अंग)

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