शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

१४. बचन बिवेक को अंग ~ ४

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१४. बचन बिवेक को अंग*
*बोलिए तौ तब जब, बोलिए की सुधि होइ,* 
*न तौ मुख मौंन गहि, चुप होइ रहिये ।* 
*जोरिये ऊ तब जब, जोरिबो ऊ जांनि परै,*
*तुक छंद अरथ, अनूप जामैं लहिये ।* 
*गाइए ऊ तब जब, गाइबे कौं कंठ होइ,* 
*श्रवण के सुनत हो मन जाइ गहिये ।* 
*तुकभंग छंदभंग, अरथ मिलै न कछु,* 
*सुन्दर कहत ऐसी, बांनी नहीं कहिये ॥४॥* 
*उचित वाणी ही बोलने का परामर्श* : 
*(क)* लोक में बुद्धिमान पुरुष को तभी बोलने का प्रयास करना चाहिए, जब उस विषयों में बोलना जानता हो । अन्यथा मौन धारण कर चुपचाप बैठे रहना चाहिये । 
*(ख)* किसी काव्य रचना का भी प्रयास करना चाहिए जब उस कविता के तुक, छंद एव अनुपम अर्थ के विषय में पहले भली भाँति जान लिया गया हो । 
*(ग)* किसी सभा में गायन का भी तभी प्रयास करना चाहिये जब उसके पास कन्ठ(सुस्वर) हो, जो श्रोता को, सुनने के साथ ही, मुग्ध कर ले । 
*श्रीसुन्दरदास जी* कहते हैं – ऐसे वाणी(कविता) नहीं बोलनी चाहिए जिसमें तुकभंग हो, या छन्दोभंग हो, तथा उसका कई हितकारी अर्थ भी न निकलता हो ॥४॥ 
 (क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें