॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१४. बचन बिवेक को अंग*
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*बोलिए तौ तब जब, बोलिए की सुधि होइ,*
*न तौ मुख मौंन गहि, चुप होइ रहिये ।*
*जोरिये ऊ तब जब, जोरिबो ऊ जांनि परै,*
*तुक छंद अरथ, अनूप जामैं लहिये ।*
*गाइए ऊ तब जब, गाइबे कौं कंठ होइ,*
*श्रवण के सुनत हो मन जाइ गहिये ।*
*तुकभंग छंदभंग, अरथ मिलै न कछु,*
*सुन्दर कहत ऐसी, बांनी नहीं कहिये ॥४॥*
*उचित वाणी ही बोलने का परामर्श* :
*(क)* लोक में बुद्धिमान पुरुष को तभी बोलने का प्रयास करना चाहिए, जब उस विषयों में बोलना जानता हो । अन्यथा मौन धारण कर चुपचाप बैठे रहना चाहिये ।
*(ख)* किसी काव्य रचना का भी प्रयास करना चाहिए जब उस कविता के तुक, छंद एव अनुपम अर्थ के विषय में पहले भली भाँति जान लिया गया हो ।
*(ग)* किसी सभा में गायन का भी तभी प्रयास करना चाहिये जब उसके पास कन्ठ(सुस्वर) हो, जो श्रोता को, सुनने के साथ ही, मुग्ध कर ले ।
*श्रीसुन्दरदास जी* कहते हैं – ऐसे वाणी(कविता) नहीं बोलनी चाहिए जिसमें तुकभंग हो, या छन्दोभंग हो, तथा उसका कई हितकारी अर्थ भी न निकलता हो ॥४॥
(क्रमशः)
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