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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“षड्विंशति तरंग” २०/२१)*
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संत सुखी, सुख पावत ईश्वर,
ईश्वर को तन संत कहावे ।
ज्यों सब - धेनु रहे पय गुप्त जु,
वच्छ बिना स्थन बूंद न पावे ॥
त्यों जग माँहिं बस्यो हरि को रस,
संत सभा मुखते बरसावे ।
माधवदास कहे यह म्हातम,
जो पठि हैं जन, सो फल पावे ॥२०॥
जब संत जन प्रसन्न होते हैं तो ईश्वर भी प्रसन्न होता है, क्योंकि संत तो ईश्वर के ही रूप में होते हैं । जिस प्रकार धेनु के सम्पूर्ण शरीर में दूध गुप्तरूप से विद्यमान रहता है, किन्तु बछड़े के सम्पर्क बिना वह दूध स्तनों में नहीं उतरता, उसी प्रकार संतों के हृदय में श्रीहरि का लीलारस भी सदा विद्यमान रहता है, किन्तु जिज्ञासु श्रद्धालु भक्तों की उपस्थिति के बिना वह भक्तिरस उनके मुखारविन्द से प्रकट नही होता । अत: माधवदास संत चरित का महात्म्य बताते हुए वर्णन करते हैं कि जो जन श्रद्धाभक्ति से पढ़ेंगे, सुनेंगे, वे ही कृपा फल प्राप्त करेंगे ॥२०॥
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साधुहिं शब्द सुसार भरे अति,
भक्त सुहंस जु सार गहावे ।
सागर - पंक रु कीटक खार हु,
नीर तजे पुन मोति चुगावे ॥
ज्ञानहिं नांव तिरे भव सागर,
जन्तु - विषै तिन नाँहि सतावे ।
ऐसहु नाव महात्तम जानहु,
माधवदास तिरे सुख पावे ॥२१॥
साधुओं के उपदेश वचनों में अत्यन्त गूढ़ सार छिपा रहता है । कोई सुजान भक्त रूपी हंस ही उस सार को ग्रहण कर सकता है । अपिच - सागर के जल में कीचड़, काँटे, कीट व क्षार भी विद्यमान रहते हैं, किन्तु सुजान हंस उसमें से केवल मोती ही चुगता है, उसी प्रकार सुजान भक्त संतों के चरित्र से, उनके व्यवहार एवं उपदेशों से केवल जीवन कल्याण के तत्व मोती ही ग्रहण करते हैं ॥
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*श्री दादूवाणी के वचनानुसार -*
काम गाय के दूध सों, हाड चाम सो नाँहि ।
या विधि अमृत पीजिये, साधू के मुख माँहि ।
जो श्रद्धालु उक्त रीति से ज्ञान की नाव अपना लेते हैं, वे भवसागर से तिर जाते है । भवसागर के विषैले जीव जन्तु काम क्रोधादि, फिर उन्हें नहीं सताते । माधवदास इसी प्रकार नाम महात्म्य को समझकर उसे अपना कर भवसागर से तिरते हुए सुख का अनुभव कर रहा है ॥२१॥
(क्रमशः)
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