॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१५. निर्गुण उपासना को अंग*
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*जो उपजै बिनसै गुन धारत,*
*सो यह जानहुं अंजन माया ।*
*आवै न जाइ मरै नहिं जीवत,*
*अच्युत एक निरंजन राया ॥*
*ज्यौं तरु तत्त रहै रस एक हि,*
*आवत जात फिरै यह छाया ।*
*सो परब्रह्म सदा सिर ऊपरी,*
*सुन्दर ता प्रभु सौं मन लाया ॥५॥*
जो सत्त्व, रज, तम - इन तीन गुणों से उत्पन्न होता है, उसके विषय में समझ लो कि वह मायामय है, माया से उत्पन्न है ।
इस के विपरीत, जो न जन्म लेता है, न मरता है, न जीवित रहता है, वह प्रभु अच्युत है, अविनाशी है, निरंजन निर्विकार है ।
जैसे वृक्ष एक ही है, परन्तु उसका प्रतिबिम्ब(छाया) जल में पृथक् पृथक् हिलता डुलता दिखायी देता है ।
यही स्थिति उस निरंजन निराकार के विषय में चरितार्थ होती है । श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - हम उसी परब्रह्म से अपना चित्त लगाये हुए हैं ॥५॥
(क्रमशः)
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