गुरुवार, 11 दिसंबर 2014

१५. निर्गुण उपासना को अंग ~ ५


॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
.
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१५. निर्गुण उपासना को अंग*
*जो उपजै बिनसै गुन धारत,*
*सो यह जानहुं अंजन माया ।* 
*आवै न जाइ मरै नहिं जीवत,*
*अच्युत एक निरंजन राया ॥* 
*ज्यौं तरु तत्त रहै रस एक हि,*
*आवत जात फिरै यह छाया ।* 
*सो परब्रह्म सदा सिर ऊपरी,*
*सुन्दर ता प्रभु सौं मन लाया ॥५॥* 
जो सत्त्व, रज, तम - इन तीन गुणों से उत्पन्न होता है, उसके विषय में समझ लो कि वह मायामय है, माया से उत्पन्न है । 
इस के विपरीत, जो न जन्म लेता है, न मरता है, न जीवित रहता है, वह प्रभु अच्युत है, अविनाशी है, निरंजन निर्विकार है । 
जैसे वृक्ष एक ही है, परन्तु उसका प्रतिबिम्ब(छाया) जल में पृथक् पृथक् हिलता डुलता दिखायी देता है । 
यही स्थिति उस निरंजन निराकार के विषय में चरितार्थ होती है । श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - हम उसी परब्रह्म से अपना चित्त लगाये हुए हैं ॥५॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें