शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

= १०१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
एक कहूँ तो दोइ हैं, दोइ कहूँ तो एक ।
यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख ॥
देख दीवाने ह्वै गए, दादू खरे सयान ।
वार पार कोई ना लहै, दादू है हैरान ॥
दादू करणहार जे कुछ किया, सोई हौं कर जाण ।
जे तूं चतुर सयाना जानराइ, तो याही परमाण ॥
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Sanatana Dharma - "The Eternal Way"

संतों ने उस परम रहस्य को पाने के दो मार्ग बताए हैं- ध्यान मार्ग और भक्ति मार्ग ! भक्ति है 'मैं' का 'तू' में विलय और ध्यान है 'मैं' का विशलेषन, 'मैं कौन हूँ ?' भक्त का 'मैं' छूटता जाता है और 'तू' प्रगट होता जाता है. भक्ति की पराकाष्ठा है- तत्वमसि श्वेतकेतु ! तू ही तू है, 'मैं' बचा ही नहीं. वहीं दूसरी ओर ध्यान की पराकाष्ठा है - अहम ब्रह्मास्मि ! मैं ही ब्रह्म हूँ, 'तू' बचा ही नहीं. 
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दोनो ही मार्गों पर एक ही बचता है, वो चाहे 'मैं' हो या 'तू' ! मोटे तौर पर ये दो ही मार्ग हैं, हाँ तीसरा मार्ग है सांख्य का, मगर वो कोई मार्ग नहीं है क्योंकि उसमे कोई साधना नहीं करनी, उसके लिए ज़रूरी है कि मनुष्य की समझ इतनी प्रगाढ़ हो जाए की उसे समझ आ जाए कि जिसे खोज रहे हो वो मिला ही हुआ है. मगर ये सबके लिए मुमकिन नहीं. बहुत थोड़े से लोग हुए हैं महर्षी कपिल, अश्टावक्र, महाराजा जनक, रमण महर्षी जैसे लोग, जिन्होने उस परम सत्य को सांख्य योग के माध्यम से पाया है. सांख्य योग, परम प्रतिभाशाली साधकों के लिए है. और इतनी प्रतिभा बहुत कम लोगों के पास होती है. तो ज़्यादातर लोगो के लिए दो ही मार्ग बचे- ध्यान योग या भक्ति योग.

हिंदू साधना मे सब कुछ सम्मिलित है, ध्यान भी और भक्ति भी. भक्ति योग की भी दो शाखायें हैं- साकार भक्ति और निराकार भक्ति | यहाँ ये भी बताना ज़रूरी है की हिंदुओं में साकार और निराकार दोनो भक्ति मार्गों की साधनायें की जाती रही हैं. आख़िर ये भक्ति मार्ग क्या है? भक्ति है- मैं को इनकार और तू का स्वीकार ! जब भक्त मान लेता है कि "मैं नहीं हूँ, तू ही है" तो भक्ति पूरी हुई. जब तक मैं और तू है तब तक द्वैत है, द्वैत यानी संसार. जब तक दो हैं तब तक सारा झगड़ा है, द्वैत मिटा की सब झगड़ा मिटा. जब एक ही है तो किसके प्रति हिंसा, किसपे क्रोध, किससे इर्ष्या, किसके प्रति द्वेष, कैसा लोभ, कैसा मोह ? 
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बात यहाँ साकार भक्ति मार्ग की हो रही है यानी कि मूर्ति-पूजा की. आख़िर मूर्ति-पूजा का क्या उपयोग है इस अहंकार को मिटाने में ? भक्ति मार्ग है अहंकार को मिटाना, मैं को मिटाना, ताकि तू ही बचे. मगर क्या आदमी इतनी सरलता से उस 'मैं' को मिटाने को तैयार हो जाएगा जिसे वो अपना सब-कुछ समझता है ? अहंकार को मिटाने का अर्थ है - किसी के सामने झुकना, किसी को अपने से उपर मानना. 
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आदमी इतनी जल्दी राज़ी नहीं होता किसी के सामने झुकने को, किसी को अपने से श्रेष्ठ मानने को. हिंदू मनीषी इस मामले में बड़े समझदार निकले. उन्होने बड़ी गहनता से मनुष्य के मन को समझा कि मनुष्य के लिए किसी के सामने झुकना इतना सरल नहीं है. तो दूसरा उपाय था की चलो सीधे-सीधे परमात्मा के सामने झुका जाए मगर अभी जिसे जानते ही नहीं उसके सामने झुकने का अर्थ क्या ? अगर उसे जानते ही होते तो इतना सब करने की ज़रूरत ही क्या थी ? फिर इस साधना का अर्थ क्या था ?
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तो भारतीय मनीषियों ने कहा की चलो तुम जहाँ मर्ज़ी वहीं पर झुक जाओ. किसी पेड़ के सामने, सूर्य के सामने, चंद्रमा के सामने, सुबह की खिली धूप के सामने, शीतल पवन के सामने, बादलों के सामने, खुले आकाश के सामने या फिर अपने घर के कोने या मंदिर में रखी किसी मूर्ति के सामने. जहाँ तुम्हे सुगम लगे झुकना वहीं झुक जाओ, क्योंकि जब तुम झुकते हो तो याद रखना सिर्फ़ शरीर ही नहीं झुकता, थोड़ा-बहुत ही सही तुम्हारा अहंकार भी झुकता है. और एक बार तुम्हे झुकने की आदत पड़ गयी तो फिर धीरे-धीरे तुम निर्जीव के सामने झुकने के साथ-साथ सजीव के सामने भी झुकना शुरू कर दोगे. बात सिर्फ़ आदत की है.....! 
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इसीलिए हम हिंदुओं में बहुत से देवताओं की धारणा है, इन्द्र हैं, रूद्र हैं, विष्णु हैं, अग्नि हैं, वरुण हैं इत्यादि ताकि हमारे लिए कहीं भी उपाय ना बाकी रहे अपने अहंकार को बचाने का. किसी भी चीज़ का नाम लो और तुम पाओगे की हिंदू शास्त्रों मे उसे देवी-देवता के रूप में प्रतिस्थापित किया गया है. यह सब धीरे-धीरे बहला-फुसला कर तुम्हारे अहंकार को गिराने के उपाय हैं. तुम्हारा अहंकार जाए तो 'वो' प्रगट हो ! अगर किसी पत्थर की मूर्ति के सामने झुकने से भी तुम्हारा अहंकार गिरता है, थोड़ी भावदशा बदलती है तो वो भी सहायक है, चलो कुछ देर के लिए ही सही, कुछ तो विधायक भाव तुम्हारे अंदर आया, कुछ तो मन शांत हुआ. और याद रखना अशांति भी multiply होती है और शांति भी.
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रामकृष्ण परमहंस, मीरा बाई, सूरदास, तुलसीदास एवम चैतन्य महाप्रभु जैसे कुछ नाम हैं जिन्होने साकार भक्ति से शुरूवात करके उस निराकार चैतन्य को पाया. रामकृष्ण परमहंस काली के भक्त थे तो मीराबाई कृष्णा की मूर्ति को गले से लगाकर सोती थी. सूरदास ऐसे कृष्ण भक्त थे की उन्हे चारों तरफ कृष्ण ही नज़र आते थे, वही तुलसीदास जी रामभक्त थे. और फिर साकार और निराकार में क्या भेदभाव करना ? सब वही तो है, साकार भी और निराकार भी. असल में जिस दिन निराकार भक्ति पूरी हुई उस दिन पता चलेगा की साकार भी वही है. इसलिए अगर साकार में तुम्हे वह दिखाई नहीं देता इसका मतलब है अभी निराकार भक्ति पूरी नहीं हुई. 
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कबीर साहब क्या कहते हैं-
घट-घट में पंछी बोलता;
सब में सब बन आप विराजे, 
जड़-चेतन में डोलता !
घट-घट में वही बोल रहा है जड़ हो या चेतन सबमे वही एक परम सत्ता निवास करती है.
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इशावास्य- उपनिषद् का ऋषि भी यही कहता है- भगवान इस जगत के कण-कण में विद्यमान है. अगर यह बात सत्य है तो क्या पत्थर की मूर्ति में वह नहीं है ? ईश्वर के सिवाय कुछ है ही नहीं, सब ओर वही है ! जब भक्त और भगवान एक हो गये तो भक्त ने जाना की सारी स्रष्टी में एक उसी का निवास है !
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इसलिए मैं अपने आर्य समाजी भाइयों से कहना चाहूँगा कि अगर आप निराकार और निर्गुण का सही अर्थ करना समझ गये तो आपको मूर्ति-पूजा भी समझ आ जाएगी. 'इश्वर निराकार के सिवाय कुछ भी नहीं'- इसमे से बस निराकार को हटा कर देखो ! क्या बचा ?- इश्वर के सिवाय कुछ भी नहीं ! अब करो मज़े से निराकार भक्ति या साकार भक्ति, जैसा मन करे. 
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और दयानंद जी की आप फ़िक्र ना करना फिक्र करना तो इश्वर का ! दयानंद जी भी अगर साकार और निराकार को अलग माने तो समझना अभी अद्वैत को उपलब्ध नहीं हुए. और मैं ये मान नहीं सकता की दयानंद जी आत्मज्ञानी नहीं थे. उनके वचन इतने प्यारे हैं, इतनी सरल साधना बताई है की पढ़-लिखा हो की अनपढ़, सब समझ सकते हैं. बस उनके इस एक वचन की ग़लत व्याख्या ने सारा भेद पैदा कर दिया. 
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साकार और निराकार अगर अलग हैं तो कभी एक नहीं हो सकते और अगर एक नहीं हुए तो कैसा अद्वैत, कैसा आत्मज्ञान ? एक हो सकते हैं क्योंकि एक हैं, बस आदमी अपने को ईश्वर से अलग मानता है और यही अज्ञान है. जैसे सागर में उठी लहर अपने को सागर से अलग माने. निराकार भक्ति और साकार भक्ति में बस फ़र्क इतना है की साकार भक्ति को शुरू करना आसान है मगर पूर्णता मुश्किल है क्योंकि एक ख़तरा है की भक्त मूर्ति को पकड़ कर बैठ जाता है वहीं दूसरी ओर निराकार भक्ति की शुरूवात मुश्किल है क्योंकि सामने कुछ दिखाई नही देता, सीधे-सीधे निराकार को महसूस करना ज़रा मुश्किल है लेकिन एक बार अगर निराकार का स्वाद लग गया तो आ गयी मंज़िल, हो गयी भक्ति पूरी ! 
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अंत में यही कहना चाहूँगा की - A for Apple, B for Ball....बच्चे तस्वीर न देखे तो A, B, C जैसे symbols का उनके लिए कोई मतलब नहीं ....अतः प्रारम्भिक साधको के लिए अनिवार्य है कि आप पहले ईश्वर को साकार देखे .... फिर जैसे Apple और Ball छुट जाता है ....और सिर्फ A,B,C रह जाती हैं वैसे ही आप निर्गुण ब्रह्म तक पहुचते हैं |

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः

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