रविवार, 8 फ़रवरी 2015

= ११७ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
जहॉं जगद्गुरु रहत है, तहॉं जे सुरति समाइ ।
तो इन ही नैनहुँ उलट कर, कौतुक देखै आइ ॥
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साभार : Kripa Shankar B ~
*दोनों आँखों के बीच स्वर्ग का द्वार है : (भाग २)*
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भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव|
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं ---
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च|
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम्||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्|
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, परमात्म सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है की जीवन भर मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे ? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|
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यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए आपको आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा|

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