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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३०.(गुजराती) विनती । पंचमताल
तूँ ही तूँ तनि माहरे गुसांई, तूँ बिना तूँ केने कहूँ रे ।
तूँ त्यां तूँ ही थई रह्यो रे, शरण तुम्हारी जाय रहूँ रे ॥टेक॥
तन मन मांहि जोइये त्यां तूँ, तुज दीठां हौं सुख लहूँ रे ।
तूँ त्यां जेटली दूर रहूँ रे, तेम तेम त्यां हौं दुःख सहूँ रे ॥१॥
तुम बिन माहरो कोई नहीं रे, हौं तो ताहरा वैण बहूँ रे ।
दादू रे जण हरि गुण गाता, मैं मेलूँ माहरो मैं हूँ रे ॥२॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, इसमें विनय कर रहे हैं कि हे हमारे स्वामी परमेश्वर ! आपका ही स्मरणरूप हमारे अन्तःकरण में ध्वनि हो रही है । हे प्रभु ! आपके प्रकट हुए बिना मैं ‘तू’ किसको कहूँ, क्योंकि ‘तू’ तो अपने अत्यन्त स्नेही को ही कहा जाता है । आप ही जड़ चेतन सृष्टि में वृत्ति द्वारा भासित हो रहे हो । अब मैं आपकी ही शरण रूप स्थिति में जा रहा हूँ ।
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अपने तन में, मन में, आपको ही व्याप्त देखता हूँ । आपका दर्शन करके ही, हम सुखी रहते हैं । आप वहाँ हो, इतना कहने में ही जो फर्क पड़ता है, त्यों - त्यों ही हमको दुख होता है ।
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हे नाथ आपके बिना हमारा स्नेही कोई भी नहीं है । मैं तो आपको दिये हुए वचनों से भटक गया हूँ । अब हम विरहीजन आप हरि के गुणानवाद गाते हुए ही, अपने अनात्म अहंकार को त्यागकर आपको अपना लक्ष्य स्वरूप जानकर, आपमें ही रहेंगे ।
(क्रमशः)
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