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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३२. विनती । त्रिताल ~
ये मन माधो बरजि बरजि ।
अति गति विषिया सौं रत,
उठत जु गरजि गरजि ॥टेक॥
विषय विलास अधिक अति आतुर,
विलसत शंक न मानैं ।
खाइ हलाहल मगन माया में,
विष अमृत कर जानैं ॥१॥
पंचन के संग बहत चहूँ दिशि,
उलट न कबहूँ आवै ।
जहँ जहँ काल ये जाइ तहँ तहँ,
मृग जल ज्यों मन धावै ॥२॥
साध कहैं गुरु ज्ञान न मानै,
भाव भजन न तुम्हारा ।
दादू के तुम सजन सहाई,
कछू न बसाइ हमारा ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु, मन निग्रह अर्थ विनती कर रहे हैं कि हे माधव ! इस हमारे मन को आप अपनी दया - दृष्टि से रोकिये । हमतो इसको बरज बरज कर थक रहे हैं, परन्तु इसकी गति तो विषया स्त्री आदि से रत्त होकर, पुनः पुनः उन्हीं पदार्थों के लिये, वासना रूप गर्जना कर करके चलता है ।
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यह अति आतुरता से विषयों को भोगता है । उनके भोगने में शास्त्र की, गुरुओं की, उत्तम पुरुषों की, शंका नहीं मानता है अर्थात् लज्जा नहीं करता है और हलाहल विषयों को ही भोगता है । सदैव यह माया और माया के कार्यों में ही मग्न रहता हैं और विषयों को ही अमृत सुख जानता है ।
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पांच ज्ञान इन्द्रियों के साथ, अन्तःकरण की चारों वृत्तियों के द्वारा, जागृत स्वप्न में बहता रहता है । अपने आपको उधर से उलट कर अन्तःकरण में आपके नाम में कभी भी नहीं लगता है । जहाँ जहाँ काल है, वहाँ वहाँ ही वह जाता है । जैसे मृग मरीचिका के जल के लिये दौड़ता रहता है, वैसे ही यह मन मायावी विषय - वासनाओं के लिये दौड़ता रहता है ।
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हे परमेश्वर ! सच्चे संत और तत्ववेत्ता गुरुदेव ज्ञान देते हैं, परन्तु उनके ज्ञान को यह नहीं कबूल करता है । आपका भाव - भजन तो इसको भाता ही नहीं । हे परमेश्वर ! आप ही हमारे सज्जन और सहायक हो । इस मन पर तो हमारा कुछ भी वश नहीं चलता है ।
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Restrain, O God, restrain this mind.
Roaring, again and again it rises;
It rushes with great speed and becomes
engrossed in sense objects.
Extremely restless, seeking sensual indulgence,
it takes great delight in sensuality and has no fear.
Mistaking poison for nectar, it rejoices
in illusion and consumes the poison.
In association with the five senses, it runs
in the four directions, and returns not within.
Where there is Kal, there does it go;
in pursuit of the mirage does it run.
Saints’ exhortations, the Guru’s instructions, it heeds not;
nor does it have any feeling or devotion for You.
You alone are Dadu’s friend and helper;
my strength is of no avail.
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(English translation from
"Dadu~The Compassionate Mystic"
by K. N. Upadhyaya~Radha Soami Satsang Beas)
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