मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

‪#‎daduji‬
॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =

अथ अध्याय २ ~
४ आचार्य फकीरदासजी ~ 
फकीरदासजी महाराज तक अपरिग्रह रुप व्रत का पालन होता रहा था, संग्रह कुछ भी नहीं करते थे । दादू जी महाराज के उपदेशों के अनुसार ही जीवन व्यतीत करते थे । न किसी ने स्थान बनाया था और न किसी ने किसी प्रकार का संग्रह ही किया था । आडम्बर रहित रहते हुये निरंतर ब्रह्मभजन ही करते थे और सत्य उपदेश द्वारा लोक कल्याण करने में भी भाग लेते थे । किन्तु इस समय समाज की संख्या भी उत्तरोत्तर बढती ही जा रही थी फिर भी फकीरदासजी महाराज उचित रीति से समाज का संचालन करते हुये गद्दी पर ४५ वर्ष ४ महिना विराजकरवि. सं. १७०५ भादवा बदि ८ को ब्रह्मलीन हुये थे । फकीरदासजी के दस शिष्य थे किन्तु आपने उत्तराधिकारी होने का संकेत किसी के लिये भी नहीं किया था । इससे गद्दी पर किसको बैठाया जाय, यह निश्‍चय नहीं कर सकते थे । इधर कई लोग गद्दी पर बैठने को तैयार हो रहे थे । तब ध्यानीबाई जी फकीरदासजी की सहोदरा बहिन थी और सभाकुमारी गरीबदासजी की बहिन को गुरु मान कर उन के बताये हुये, योग साधन द्वारा वह सुलभा के समान ब्रह्मचारिणी और योगिनी हो गई थी, और साधन - मार्ग में उस समय के संतों से भी अधिक आगे बढ गई थी । 
उसने कहा - “गद्दी म्हारा वीर की, ता में म्हारो सीर” 
अर्थात् गद्दी मेरे भाई फकीरदासजी की है, उस पर बिना अधिकार अन्य कैसे बैठ सकता है ? अत: जब तक सर्वसम्मति से गद्दी कायोग्य अधिकारी नहीं चुना जायगा तब तक, मैं ही बैठुंगी । ध्यानीबाई जी की शक्ति के आगे अन्य संत उस समय कुछ नहीं बोल सके, किन्तु समाज उनको बैठाना नहीं चाहता था । फिर भी ध्यानीबाई ने सर्व सम्मति से चुने बिना अन्य को नहीं बैठने दिया और स्वंय ही गद्दी पर अधिकार जमा बैठी । इस कारण ही उस समय यह वार्ता चल पडी - “दादू के सब ही मरे,ध्यानी बैठी पाट ।”यह बात एक चारण की इच्छा ध्यानी के समय पूर्ण न होने से उसने कही थी । फिर यह अपवाद रुप से फैल गई । यह अपवाद समाज के संतों को भी अच्छा नहीं लगा । 
उन दिनों में दौसा के महन्त सुखराम जी तीन सौ मूर्तियों के साथ पंजाब से चलकर शीघ्र ही नारायणा दादूधाम पर आये और वहां की स्थिति देख कर उन्होंने समाज के माने हुये सतों को बुलाया फिर समाज के माने हुये संतों की तथा भक्तों की एक सभा बुलाई और सभा में यह प्रस्ताव रखा कि मतभेदों के कारण हम आचार्य किस को बैठाया जाय’ इसका निर्णय करने में असफल रहे हैं । अब हम को आचार्य के निर्णय के लिये ऐसा उपाय खोजना चाहिये, जिसमें मतभेद न रहे और वह सर्व प्रकार सर्व मान्य हो जाय । यह सुनकर दौसा के वृद्ध महन्त सुखरामजी ने कहा - “ऐसा तो एक यही उपाय है कि हम दादूजी महाराज से ही प्रार्थना करें, वे हमें जिस की आज्ञा दें उसी को आचार्य पद पर बैठा दिया जाय” यह बात सभा में उपस्थित सभी संतों को मान्य हो गई । 
(क्रमशः)

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