मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

२३. आपुने भाव को अंग ~ ९


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२३. आपुने भाव को अंग* 
*आपुनै भाव तैं सेवक साहिब,* 
*आपुनै भाव सबै कोऊ ध्यावै ।* 
*आपुनै भाव तैं अन्य उपासत,* 
*आपुने भाव तैं भक्त हु गावै ॥* 
*आपुनै भाव तैं दुष्ट संघारत,* 
*आपनै भाव तैं बाहर आवै ।* 
*जैसौ हि आपुनौं भाव है सुन्दर,* 
*ताहि कौं तैसौ हि होइ दिखावै ॥९॥* 
अपने विचार से सेव्य(साहिब) सेवक भाव बनता है । अपनी ही भावना से किसी का ध्यान करता है । 
अपने विचार से ही किसी अन्य की उपासना में चित्त लगता है, अपनी भावना से किसी का भक्त होकर गाने लगता है । 
अपने विचार से किसी का संहार(नाश) करता है । अपने भाव से ही कहीं जन्म होने के लिये गर्भ से बाहर आता है । 
*श्रीसुन्दरदास जी* कहते हैं, जिस का जैसा भाव होता है उसी के अनुसार वह आकार धारण कर लोक में दिखायी देता है ॥९॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें