#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२३. आपुने भाव को अंग*
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*आपुनै भाव तैं सेवक साहिब,*
*आपुनै भाव सबै कोऊ ध्यावै ।*
*आपुनै भाव तैं अन्य उपासत,*
*आपुने भाव तैं भक्त हु गावै ॥*
*आपुनै भाव तैं दुष्ट संघारत,*
*आपनै भाव तैं बाहर आवै ।*
*जैसौ हि आपुनौं भाव है सुन्दर,*
*ताहि कौं तैसौ हि होइ दिखावै ॥९॥*
अपने विचार से सेव्य(साहिब) सेवक भाव बनता है । अपनी ही भावना से किसी का ध्यान करता है ।
अपने विचार से ही किसी अन्य की उपासना में चित्त लगता है, अपनी भावना से किसी का भक्त होकर गाने लगता है ।
अपने विचार से किसी का संहार(नाश) करता है । अपने भाव से ही कहीं जन्म होने के लिये गर्भ से बाहर आता है ।
*श्रीसुन्दरदास जी* कहते हैं, जिस का जैसा भाव होता है उसी के अनुसार वह आकार धारण कर लोक में दिखायी देता है ॥९॥
(क्रमशः)
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