शनिवार, 25 अप्रैल 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ ८


#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*एक ही व्यापक बस्तु निरंतर,* 
*विश्व नहीं यह ब्रह्म बिलासै ।* 
*ज्यौं नट मंत्रनि सौं दृग बांधत,* 
*है कछु औरई औरई भासै ॥* 
*ज्यौं रजनी महिं सूझि परै नहिं,* 
*जौ लगि सूरज नांहि प्रकासै ।* 
*त्यौं यह आपहि आप न जानत,* 
*सुन्दर व्है रह्यौ सुन्दरदासै ॥८॥* 
यह समस्त जगत् वस्तुतः उस ब्रह्म की लीलामात्र है जो, स्वयं एक है, सर्वव्यापक है, स्थायी(अविनाशी) है । 
जैसे कोई नट(बाजीगर) दर्शकों सम्मोहन कर उसका दृष्टिबन्ध कर देता है, जिसके कारण दर्शक को कुछ अन्य का अन्य ही भासने लगता है ।
जैसे रात्रि होने पर प्राणी को कुछ भी दृष्टिगत नहीं होता, जब तक कि सूर्य का प्रकाश न हो जाय । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वैसे ही आत्मज्ञान के बिना मनुष्य सत्पथ से विचलित हो जाता है । आत्मज्ञान में भ्रान्ति के कारण ही आज यह सुन्दरस्वामी भी ‘सुन्दरदास’ बन कर संसार में घूम रहा है ॥८॥
(क्रमशः)

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