#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू घट कस्तूँरी मृग के, भ्रमत फिरै उदास ।
अन्तरगति जाणै नहीं, तातैं सूंघै घास ॥
सब घट में गोविन्द है, संग रहै हरि पास ।
कस्तूँरी मृग में बसै, सूंघत डोलै घास ॥
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साभार ~ Rp Tripathi
****:: विचारों के मोती ::****
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जिस तरह ---
मृग-मरीचका में जल नहीं होता, यह मृग भले ही ना जान पाये, और उसे अतृप्त-अवस्था में ही प्राण त्यागने पड़ें ? परन्तु इससे यह कभी सिद्ध नहीं होता कि -- मृग ने कभी वास्तविक जल नहीं देखा ?
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वास्तविक जल क्या है ?
और उससे कैसी तृप्ति मिलती है ? यह सब वह, भली-भाँति जानता है !! समस्या सिर्फ इतनी है कि वह -- प्रतिबिम्ब को ही, बिम्ब समझने की भूल कर बैठा है !! जिस तरह केशर उसकी नाभि में ही होता है, परन्तु ढूंढता फिरता है वह, जगह जगह की बाहरी घास में !!
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इसी तरह --
इस भौतिक-संसार में आनंद नहीं है, यह भले ही मनुष्य ना जान पायें ? और अतृप्त-अवस्था(अधूरी-कामनाओं) में ही उसे क्यों ना प्राण त्यागने पड़ें ? परन्तु इससे यह कभी सिद्ध नहीं होता कि -- मानव ने वास्तविक आनंद नहीं देखा ?
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वास्तविक आनंद क्या है ?
और उससे कैंसी तृप्ति(संतुष्टि/शांति) मिलती है ? यह सब भी, प्रत्येक मानव, भली-भांति जानता है !! परन्तु मानव के साथ भी समस्या यही है कि -- वह प्रतिबिम्ब(इन्द्रियजन्य सुख) को ही बिम्ब(आत्मिक-सुख ) समझ बैठा है !! आनंद तो उसकी अंतरात्मा का स्वभाव है, परन्तु वह भी ढूंढ रहा है मृग की भाँति, बाह्य-सँसार में !!
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(येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः !
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति …!!)
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********ॐ कृष्णम वन्दे जगत गुरुम********
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