मंगलवार, 26 मई 2015

= १८१ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
दादू जिन पहुँचाया प्राण को, उदर उर्ध्व मुख खीर ।
जठर अग्नि में राखिया, कोमल काया शरीर ॥ 
दादू समर्थ संगी संग रहै, विकट घाट घट भीर ।
सो सांई सूं गहगही, जनि भूलै मन बीर ॥ 
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साभार : Bhakti Se Anand ~ बुद्धि और श्रद्धा 

मेरी धारणा में तो बुद्धिवाद की अपेक्षा श्रद्धा बहुत ही ऊँची और उपादेय वस्तु है, परन्तु उसकी कसौटी यही है की इश्वर या सत्य का श्रद्धालु कभी पाप का आचरण नहीं कर सकता l बुद्धिवादियों में भी यह भाव रहना आवश्यक है की वे अपने लिए अपनी बुद्धि से काम लेने का जितना अधिकार समझते हैं उतना ही दूसरों के लिए भी माने, चाहे वे निम्न श्रेणी के लोग माने जाते हों या कम विद्या-प्राप्त हों l इसमें कोई संदेह नहीं की आँख मूंदकर तो किसी की बात नहीं माननी चाहिए, तथापि कुछ ऐसी बातें भी जगत में होती हैं, जो हमारी समझ में नहीं आती, पर सत्य होती हैं और जिस पर हमारा भरोसा होता है, उसके विश्वास पर हमें उनको स्वीकार भी करना पड़ता है और स्वीकार करना भी चाहिए l

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