बुधवार, 27 मई 2015

= १८३ =

#daduji
॥ दादूराम सत्यराम ॥
आज्ञा अपरंपार की, बसि अंबर भरतार ।
हरे पटंबर पहरि करि, धरती करै सिंगार ॥ 
वसुधा सब फूलै फलै, पृथ्वी अनंत अपार ।
गगन गर्ज जल थल भरै, दादू जै जै कार ॥ 
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साभार ~ Ramjibhai Jotaniya 
~ Prakriti Rai
हरित पल्लवित नववृक्षों के दृश्य मनोहर,
होते मुझको विश्व बीच हैं जैसे सुखकर, 
सुखकर वैसे अन्य दृश्य होते न कभी हैं, 
उनके आगे तुच्छ लगते मुझे सभी हैं, 
छोटे- छोटे झरने जो बहते सुखदाई, 
जिनकी अद्भुत शोभा सुखमय होती भाई, 
पथरीले पर्वत विशाल वृक्षों से सज्जित, 
बड़े-बड़े बागों को जो करते हैं लज्जित, 
लता विटप की ओट जहाँ गाते हैं द्विजगण 
शुक, मैना हारील जहाँ करते हैं विचरण, 
ऐसे सुंदर दृश्य देख सुख होता जैसा 
और वस्तुओं से मुझे न कभी होता सुख वैसा, 
छोटे-छोटे ताल पद्म से पूरित सुंदर, 
बड़े- बड़े मैदान दूब छाई श्यामलतर ! 
भाँति-भाँति की लता वल्लरी हैं जो सारी 
ये सब मुझको सदा हृदय से लगती न्यारी, 
इन्हें देखकर मन मेरा प्रसन्न होता है,
सांसारिक दुःख ताप तभी छिन में खोता है,
पर्वत के नीचे अथवा सरिता के तट पर
होती हूँ मैं सुखी बहुत स्वच्छंद विचरकर,
नदी तथा समुद्र, बन बाग घनेरे, 
जग में नाना दृश्य प्रकृति ने चहुँ दिशि घेरे, 
तरुओं पर बैठे ये द्विजगण चहक रहे हैं, 
खिले फूल सानंद हास मुख महक रहे हैं, 
वन में त्रिविध बयार सुगंधित फैल रही है,
कुसुम व्याज से अहा चित्रमय हुई मही है, 
इन दृश्यों को देख हृदय मेरा भर जाता 
बारबार अवलोकन कर लगे इनसे है चिरनाता, 
देखूँ नित नव विविध प्राकृतिक दृश्य गुणाकर, 
यही विनय मैं करती तुझसे हे करुणाकर ! ॐ

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