सोमवार, 25 मई 2015

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२२८. मनोपदेश । मल्लिका मोद ताल
मन रे सेव निरंजन राई, ताको सेवो रे चित लाई ॥ टेक ॥ 
आदि अन्तै सोई उपावै, परलै लेहि छिपाई ।
बिन थँभा जिन गगन रहाया, सो रह्या सबन में समाई ॥ १ ॥ 
पाताल मांही जे आराधै, वासुकि रे गुण गाई ।
सहस्र मुख जिह्वा द्वै ताके, सो भी पार न पाई ॥ २ ॥ 
सुर नर जाको पार न पावैं, कोटि मुनि जन ध्याई ।
दादू रे तन ताको है रे, जाको सकल लोक आराही ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें मन को उपदेश कर रहे हैं कि हमारे मन ! अब तूँ इस मनुष्य - जन्म में सब राजाओं के राजा निरंजन देव की भक्ति रूप सेवा कर । उसका अन्तर्मुख चित्त से स्मरण कर । वह इस सृष्टि का आदि और अन्त, सबको उत्पन्न करने वाला आप स्वयं है और महा - प्रलय में सम्पूर्ण सृष्टि को अपने में लय कर लेता है । हे जिज्ञासु ! उस समर्थ ने बिना थंभा के ही आकाश में सूर्य, चन्द्रमा आदि को ठहरा रखे हैं और वही आप सबमें समाये हुए हैं । जिसकी पाताल में रहने वाले वासुकि नाग आदि भी आराधना नाम भक्ति करते हैं और शेष जी महाराज हजार मुख वाले, एक एक मुँह में दो - दो जिह्वाओं से उसका स्मरण करके भी उसके नामों का पार नहीं पा रहे हैं । सुर - देवता, नर, नारद आदि ने भी जिसका पार नहीं पाया है और करोंड़ों मुनिजन जिसका ध्यान करते हैं, उसका ही दिया हुआ यह मनुष्यदेह है, जिसकी सब लोकों के लोकवासी भक्ति कर रहे हैं । उसी को यह मनुष्य - देह स्मरण द्वारा अर्पण कर ।

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