शुक्रवार, 1 मई 2015

२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग ~ १४

#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*२४. स्वरूप बिस्मरण को अंग* 
*जैसैं कोऊ पोसती की पाग परी भूमि पर,* 
*हाथ लै कै कहै मैं तो पाग एक पाई है ।* 
*जैसैं सेखचिली हूँ मनोरथनि कीयौ घर,* 
*कहै मेरौ घर गयौ गागरि गिराई है ॥* 
*जैसे काहू भूत लग्यौ बकत है आंक बांक,* 
*सुधि सब दूरि भई औरे मति आई है ।* 
*तैसैं सुन्दर यह भ्रम करि भूलौ आप,* 
*भ्रम कै गये तैं यह आतमा सदाई है ॥१४॥* 
जैसे कोई अफीम खाने वाला कहीं अफीम के जल की बूँद पड़ी भूमि पर हाथ रगड़ कर कहे कि मैंने अफीम का बड़ा खजाना प्राप्त कर लिया है । 
या जैसे धीर पर जल का घड़ा ले जाता हुआ शेखचिल्ली(कल्पनाजीवी) अपनी कल्पनाओं का महल बनाता रहे, उसी समय उस का घड़ा गिर कर फूट जाय तो वह कहने लगे कि मेरा घर ही नष्ट हो गया । 
या जैसे कोई पुरुष भूताविष्ट हो जाय, तथा इधर उधर - उधर का प्रलाप करने लगे, उस को होश(चेतना) न रहे तथा बुद्धि भ्रष्ट हो जाय । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसी तरह यह आत्मा भी भ्रमवश स्वरूप को भूल गया है, अन्यथा यह तो नित्य स्थायी, अविनाशी एवं सर्वव्यापक है ॥१४॥ 
(क्रमशः)

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