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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२२७. वस्तु निर्देश निर्णय । मल्लिका मोद ताल ~
ऐसा तत्व अनुपम भाई, मरै न जीवै, काल न खाई ॥ टेक ॥
पावक जरै न मार्यो मरई, काट्यो कटै न टार्यो टरई ॥ १ ॥
आखिर खिरै न लागै काई, सीत घाम जल डूब न जाई ॥ २ ॥
माटी मिलै न गगन विलाई, अघट एक रस रह्या समाई ॥ ३ ॥
ऐसा तत्व अनुपम कहिये, सो गहि दादू काहे न रहिये ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें ब्रह्म स्वरूप आत्म - वस्तु का निर्देश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! वह ब्रह्म - स्वरूप आत्मा, अनूप, उपमा रहित, तत् पद और त्वम् पद का लक्ष स्वरूप है, न वह मरता है, न जन्मता है, न उसे कभी काल खाता है । न वह अग्नि में जलता है, न मारने से मरता है, न काटने से कटता है, न हटाने से हटता है । वह अक्षय स्वरूप है । वह कभी क्षर भाव को प्राप्त नहीं होता, न उसके किसी प्रकार की मायावी कालिमा ही लगती है । न वह सर्दी से गलता है, न घाम से तपता है, न जल में गलता है, न मृत्तिका में मिलता है, न आकाश में विलय होता है, न कभी घटता है, न बढ़ता है । वह एक रस सबमें समाया हुआ है । ऐसा वह आत्म - स्वरूप ब्रह्म अनुपम तत्व है । उसको ग्रहण करके उसमें समाकर क्यों नहीं रहते हो ?
न जायते भ्रियते वां कदाचित् नाय भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यशाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयत्यापो न शोषयति मारुतः ॥ (गीता)
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