शनिवार, 30 मई 2015

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३४. प्रश्‍न । रंग ताल ~
क्यों कर यह जग रच्यो, गुसांई ? 
तेरे कौन विनोद बन्यो मन मांहीं ? टेक ॥ 
कै तुम आपा प्रकट करना, कै यहु रचले जीव उधरना ॥ १ ॥ 
कै यहु तुम को सेवक जानैं, कै यहु रचले मन के मानैं ॥ २ ॥ 
कै यहु तुम को सेवक भावै, कै यहु रचले खेल दिखावै ॥ ३ ॥ 
कै यहु तुम को खेल पियारा, कै यहु भावै कीन्ह पसारा ॥ ४ ॥ 
यहु सब दादू अकथ कहानी, कहि समझावो सारंग - पाणी ॥ ५ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें परमेश्‍वर से प्रश्‍न कर रहे हैं कि हे गुसांई ! हमारे स्वामी ! आपने यह संसार किस लिये रचा है ? आपके मन में यह क्या विनोद आया ? क्या आप अपने को प्रगट करने के लिये रचा है ? या जीवों का उद्धार करने को रचा है ? क्या इसलिये रचा है कि आपके सेवक आपको पहचान लें ? क्या आपके इस रचना को रचने की मन में ही आ गई ? या आपको सेवा करने वाले सेवक भाते हैं ? या इस जगत् रुप रचना को अपना खेल दिखाने के लिये रचा है ? अथवा आपको यह जगत् रूपी खेल प्रिय लगता है ? या यह मायारूपी पसारा आपको भाता है, इसीलिए किया है ? हे नाथ ! यह आप समर्थ की अकथ कहानी है । हे सारंग - पाणि !(सारंग = काल चक्र जिनकी आज्ञा रूप, पाणी = हाथ में घूम रहा है ।) आप ही हमको कहकर के समझाइये ।
“एकोऽहं बहुस्यामः ।”
“उपज्यो प्रपंच अनादि कोऊ, महामाया विस्तरी, 
नानात्व होकर जगत भासै, बुद्धि सबहिन की हरी ।”
सुन्दर स्वामी

उत्तर की साखी `
दादू परमारथ को सब किया, आप स्वारथ नांहिं ।( १५ - ५०)
परमेश्‍वर परमारथी, कै साधू कलि मांहिं ॥ १ ॥ 
खालिक खेलै खेल कर, बूझै विरला कोइ ।(२१ - ३७)
लेकर सुखिया ना भया, देकर सुखिया होइ ॥ २ ॥

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