बुधवार, 27 मई 2015

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३१. समता ज्ञान । ललित ताल ~
बाबा, कहु दूजा क्यों कहिये, तातैं इहि संशय दुख सहिये ॥ टेक ॥ 
यहु मति ऐसी पशुवां जैसी, काहे चेतत नांहीं ।
अपना अंग आप नहिं जानै, देखै दर्पण मांही ॥ १ ॥ 
इहि मति मीच मरण के तांई, कूप सिंह तहँ आया ।
डूब मुवा मन मरम न जाना, देखि आपनी छाया ॥ २ ॥ 
मद के माते समझत नांहीं, मैगल की मति आई ।
आपै आप आप दुख दीया, देखी आपनी झांई ॥ ३ ॥ 
मन समझे तो दूजा नांहीं, बिन समझे दुख पावै ।
दादू ज्ञान गुरु का नांहीं, समझ कहाँ तैं आवै ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें समता ज्ञान का उपदेश कर रहे हैं कि हे ‘बाबा’, कहिए हे संतों ! कहो, समत्व ज्ञान उपदेश को छोड़कर, भेद - ज्ञान का उपदेश क्यों कहा जावे ? इस संशय में पड़कर जन्म - मरण रूपी दुःख सहन करना पड़ता है । यही बुद्धि तो पशुओं जैसी है, क्यों नहीं चेत करके देखते हो ? इस भेद - ज्ञान से तो अपने ब्रह्म - स्वरूप को यह जीव आप नहीं जानता है । श्‍वान और बंदर की भांति अन्तःकरण रूप दर्पण में अपने से अलग दूसरे का विचार करके दुःख पाता है । यह मति तो पशुओं की है । इस मति के वश होकर मरणे के लिये सिंह कूप पर आकर कुएं के अन्दर पानी में अपनी छाया देखता है । इस भेद को न समझकर, दूसरा सिंह कूप में जानकर कुँएं में छलांग मारता है, और डूब कर मर जाता है । इसी प्रकार काम रूप मद से मतवाला हाथी चमकीले पत्थर में अपनी छाया देखकर भ्रम वश दूसरा हाथी मानता है । अपनी ‘झांई,’ कहिए छाया को न समझकर, उससे लड़ कर अपने आपको ही आप दुःख देता है । तभी कहा है - “स्फटिक सिला से आन के, कुंजर तोरे दन्त । 
आगै जान्यो दूसरो, सुन्दर आग अनन्त ।” 
यह मन अद्वैत स्वरूप को विचार द्वारा समझे, तो फिर आत्मा के सिवाय दूसरा कोई है ही नहीं । अपने स्वरूप आत्म - तत्व को यह मन न समझकर ही संसार में जन्म - मरण रूपी दुःख बार - बार उठाता है । परन्तु सच्चे सतगुरुओं का सच्चा ज्ञान जिस को प्राप्त नहीं हुआ, उसको यह समझ कहिए बुद्धि कहाँ से प्राप्त होवे ?
जाट खेत में हल खड़ो, छोरो रोटी खाइ । 
कुंभ मांहैं बालक लख्यो, फटे मुंह कहि आइ ॥ २३१ ॥ 
दृष्टान्त ~ एक जाट खेत में हल जोत रहा था । पानी का घड़ा भरा रखा था पीने के लिये । छोटा लड़का बैठा - बैठा रोटी खाता था । जब पानी पीने को घड़े के पास गया, तो बालक ने घड़े के पानी में अपना मुँह रोटी खाते हुए देखा । मुँह फाड़कर रोने लगा । जाट दौड़कर आया और बोला ~ क्या है ? बालक बोला ~ “इसमें एक रोटी खा रहा है ।” वह घड़े में आकर झाँका और लड़के को बोला ~ “ऊत, इसमें तो तेरी ही छाया सै, क्यों दुख पावै सै ?”
बड़ा भया तो क्या भया, जो बुद्यि उपजी नांहि । 
ससै सिंह कालू कहै, नाख्यो कूवै मांहि ॥ २३१ ॥ 
दृष्टान्त ~ जंगल में एक शेर रहता था । भोजन के लिये अपनी गुफा से निकलकर वन में कई जीवों को मारता । एक रोज जंगल के सारे जीवों ने मिलकर पंचायत करी और शेर के पास पहुँचे और बोले ~ जंगल के राजा ! हम आपकी प्रजा हैं । आपको भोजन भी चाहिये, सो हमने यह विचार किया है कि जितनी जाति के इस जंगल में जीव रहते हैं, वे एक - एक दिन अपनी - अपनी जाति में से एक जीव आपके पास ही भोजन के लिये भेज देंगे, आप भोजन ढ़ूंढ़ने का कष्ट न करें । शेर ने कहा ~ बहुत अच्छा, हम भी यही चाहते हैं । एक रोज खरगोश जाति में से नम्बर आया । तब खरगोश को भेजा, उसने मार्ग में एक कुँएं के ऊपर चढ़कर कुँएं में झाँका, उसको पानी में अपनी छाया दिखाई पड़ी और बुद्धि आ गई । सोचा, आज इस काल का नाश करना है । फिर चला धीरे - धीरे और झाड़ - झंकाड़ में फँसकर अपने बदन में खून निकाल लिया । उधर शेर भूख से पीड़ित, क्रोध में भरा बैठा था । सुसा को देखा और बोला ~ मूर्ख ! बहुत देर में तूँ आ रहा है, अभी तुझे खाऊँगा । सुसा बोला ~ “जंगल के राजा, मेरी प्रार्थना सुन लो । मैं तो आपका भोजन हूँ ही । परन्तु इस जंगल में दूसरा शेर और आ गया है । उसने मुझे पकड़ लिया । उससे मैं अपने आपको छुड़ाकर दौड़ा आ रहा हूँ । कल से आपके पास और जीव भोजन के लिये मुश्किल ही पहुँचेंगे, क्योंकि वह शेर भी जंगल के जीवों का भोजन करेगा ?” तब शेर बोला ~ “बताओ कहाँ है ? पहले उससे युद्ध करूँगा, मेरे जंगल में वह कैसे आया ? फिर तुझे खाऊँगा ।” सुसा शेर को साथ लेकर चला । उसी कुँएं पर आ पहुँचा और बोला ~ “राजा, इसमें हैं, इसमें देखो ।” शेर ने कुँएं में देखा, तो उसी की छाया जल में दिखाई पड़ी । शेर ने भ्रमवश दूसरा शेर जाना और गर्जना की । कुँएं में से गर्जना का शब्द आया । सुसा बोला ~ “राजन् ! आपसे डरता नहीं है, सामने बोल रहा है ।” शेर ने कुँएं में छलांग मारी और पानी में डूबकर मर गया । सुसा खुशी होता हुआ गया, क्योंकि उसने सारे जंगल के जीवों को निर्भय कर दिया ।
बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम् । 
वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः ॥(पंचतन्त्र)
शारीरिक बल से बुद्धिबल अधिक होता है, इसीलिये साधारण खरगोश ने अपने बुद्धिबल से शक्तिशाली सिंह को मरवा डाला ।

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