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॥ दादूराम ~ श्री दादूदयालवे नम: ~ सत्यराम ॥
"श्री दादू पंथ परिचय" = रचना = संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान =
अथ अध्याय ४ ~
६ आचार्य कृष्णदेव जी ~
कुछ दिन तो गये फिर एक दिन कृष्णदेवजी महाराज ने विचार किया - प्रति दिन ग्राम में जाना तो अच्छा नहीं है । फिर दूसरे दिन नगर के राजमहल में गये तब अपना दंडा नहीं ले गये । राजमहल में पहुंचकर भोजन करने लगे । सब संत भी जीमने लग गये । तब शासक को कृष्णदेवजी महाराज ने कहा - आज हम हमारा दंडा नहीं लाये किसी को भेजकर आसन पर से दंडा मंगवाये । शासक ने तत्काल एक राजसेवक को भेजा तो उसने जाकर देखा कृष्णदेवजी तो आ गये हैं आसन पर विराजे हैं, अब दंडा ले जाकर क्या करूंगा ? वह लौट आया और शासक को कहा - तब शासक ने कहा - वे तो सब यहाँ ही हैं, ज्ञात होता है तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, यह कहकर एक दूसरे घु़डसवार को भेजा शीघ्र जाकर महाराज के आसन पर से महाराज का दंडा ले आओ । वह गया तो उसे भी महाराज आसन पर ही मिले वह गया तो उसे भी महाराज आसन पर ही मिले वह भी लौट आया और शासक को कहा - महाराज तो मेरे से पहले ही आसन पर जा पहुँचे, वे तो आसन पर विराज रहे थे ।
तब शासक समझ गया कि महाराज ने यह लीला दिखाई है इसमें कोई कारण अवश्य होना चाहिये । फिर शासक महाराज के चरणों में रखकर बोला - भगवन् ! आपकी महिमा तो अपार है । उसका पार तो हम नहीं पा सकते । दंडा लाने के लिये दो राजसेवक आगे पीछे भेजे गये थे किन्तु दोनों सेवकों ने ही आकर मुझे कहा है, महाराज आसन पर ही हैं । अत: मैं समझता हूँ कि आपको सेवा की सुविधा ठीक रही होंगी । जब हम आपका दंडा भी लाकर नहीं दे सके तब आप की अन्य सेवा कैसे कर सकते हैं ? अत: आप कृपा करके निज भक्त को आज्ञा दें कि आप क्या चाहते हैं ? जो आज्ञा होगी वैसा ही किया जायेगा । तब कृष्णदेवजी महाराज ने कहा प्रतिदिन ग्राम में आने से हमारे साधन भजन में बाधा पडती है, अत: भोजन का प्रबन्ध स्थायी रूप से वहां स्थान परही होना चाहिये ।” शासक ने कहा - ऐसा ही हो जायेगा । फिर शासक ने दूसरे दिन से बेबचा पर ही भोजन का प्रबन्ध कर दिया और वहां ही कुछ गायें रख दीं और वि.स. १८०८ माघ शु. १० को गोओं के लिये ५५४ बीघा गोचर भूमि और भोजन के लिये ढाई ग्राम समर्पण कर दिये ।
(क्रमशः)
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