॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*= २५ . सांख्य ज्ञांन को अंग =*
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*= उत्तर =*
*तूं तौ कछु भूमि नांहि आप तेज वायु नांहि,*
*व्यौम पंच विषै नांहि सौ तो भ्रम कूप है ।*
*तूं तो कछु इन्द्रिय अरु अन्तहकरन नांहि,*
*तीनौं गुन हू तूं नांहिं सोऊ छांह धुप है ॥*
*तूं तौ अहंकार नांहि पुनि महत्तत्त नांहिं,*
*प्रकृति पुरुष नांहि तूं तौ सु अनूप है ।*
*सुन्दर बिचारि अेसैं शिष्य सौं कहत गुरु,*
*नांहिं नांहिं करते रहै सु तेरौ रूप है ॥९॥*
*उत्तर* : हे शिष्य ! भूमि, जल, तेज, वायु, आकाश - इनमें से तूँ कुछ भी नहीं है; क्योंकि ये सब तत्व भ्रम के कूप हैं ।
न तूँ कोई इन्द्रिय है, न अन्तःकरणचतुष्टय में से कोई है । ये भी सब धुप एवं छाया के समान स्थिर नहीं है, चञ्चल हैं ।
न तूँ अहंकार न महत्तत्त है, तथा प्रकृति है न पुरुष, तूँ तो इन सब से अनुपम(भिन्न) है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - गुरु ने शिष्य को यही समझाया कि हे शिष्य ! वेदों में ‘नेति नेति’ कह कर जिस ब्रह्म तत्त्व की प्रशंसा की गयी है, वही ब्रह्म तेरा रूप है ॥९॥
(क्रमशः)
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