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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२२६. त्रिताल ~
रे मन मरणे कहा डराई, आगे पीछे मरणा रे भाई ॥ टेक ॥
जे कुछ आवै थिर न रहाई, देखत सबै चल्या जग जाई ॥ १ ॥
पीर पैगम्बर किया पयाना, सेख मुसायक सबै समाना ॥ २ ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश महाबलि, मोटे मुनि जन गये सबै चलि ॥ ३ ॥
निहचल सदा सोई मन लाइ, दादू हर्ष राम गुण गाइ ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, काल से चेत करा रहे हैं कि हे भाई मन ! मरने से अब क्या डरता है ? किसी को आगे और किसी को पीछे, सभी को संसार में मरना है । जो कुछ उत्पन्न होता है, वह कोई भी स्थिर रहने वाला नहीं है । विचारवानों को देखते - देखते ही सारा जगत काल के मुंह में चला जा रहा है । पीर पैगम्बर, शेख मसायक, ये सब ही काल के मुंह में समा गए हैं । और कहाँ तक कहें ? ब्रह्मा विष्णु महेश, महा बलवान् बड़े - बड़े मुनि लोमस आदि, यह सब ही समय पाकर, काल के मुंह में समा गये हैं । हे साधक ! निश्चल तो सदा एक निर्गुण राम ही है । अन्तःकरण में प्रसन्न होकर उन्हीं के गुणानुवाद गाओ ।
“येषां निमेषणोन्मेषो जगतः प्रलयोदयः ।
ता दृशाः पुरुषा नष्टा मादृशां गणनैव का ॥ २२६ ॥”
जिनके एक पलक खोलने मात्र से संसार में प्रलय मच जाती थी, ऐसे तेजस्वी पुरुष ही जब काल से नहीं बचे, तो मेरे जैसों की तो गिनती ही क्या है, जो काल से बच सके ।
निवृत्ता भोगेच्छा पुरुष बहुमानोऽविगलितः ।
समाना स्वर्याताः सपति सुहृदों जीवित समाः ।
शनैर्यष्ट्युत्थानं धनतिमिर रुद्धो च नयने ।
अहो दृष्टः कायस्तदपि मरणोपाय चकितः ॥ २२६ ॥
भोग की इच्छा, पौरुष का झूठा अभिमान समाप्त हो गया । समान आयु वाले चले गये स्वयं लकडी के सहारे चलने लगे, दृष्टि क्षीण हो गई, फिर भी मौत के नाम से ही डरते हैं, यह आश्चर्य है ।
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