मंगलवार, 26 मई 2015

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३०. उपदेश । भंग ताल ~
जोगिया बैरागी बाबा, रहै अकेला उनमनि लागा ॥ टेक ॥ 
आतम जोगी धीरज कंथा, निश्‍चल आसण आगम पंथा ॥ १ ॥ 
सहजैं मुद्रा अलख अधारी, अनहद सींगी रहणि हमारी ॥ २ ॥ 
काया वन - खंड पांचों चेला, ज्ञान गुफा में रहै अकेला ॥ ३ ॥ 
दादू दर्शन कारण जागे, निरंजन नगरी भिक्षा मांगे ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें जीवात्मा रूप योगी जिज्ञासु को उपदेश कर रहे हैं कि हे बाबा ! हमारा जीवात्मा रूप जिज्ञासु ही विरक्त योगी है । वह विषयों से अलग रहकर, ऊँची ब्राह्मी अवस्था में स्थिर हो रहा है । इस जीवात्मा रूप योगी की धैर्य रूप ही गूदड़ी है और निश्‍चल ब्रह्म में स्थिति रूप ही जिसका आसन है और मन वाणी से अगम ब्रह्म विचार रूपी जिसका मार्ग है । निर्द्वन्द्वता रूप ही जिसकी मुद्रा है और मन वाणी का अविषय अलख ही जिसका आधार है । अनहद शब्द रूप ही, जिसकी सींगी है और रहणी करणी रूप ही जिसकी धारणा है । काया रूपी वन में पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ रूप ही जिसके शिष्य हैं और जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञान ही जिसकी गुफा है । उसमें स्वयं निवास करता है और स्वस्वरूप साक्षात्कार करने के लिये अज्ञान रूप निद्रा से जागता है और इस शरीर रूप नगरी में, निरंजन की दर्शन रूप ही भिक्षा माँगता है ।

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