#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू एक बेसास बिन, जियरा डावांडोल ।
निकट निधि दुःख पाइये, चिंतामणि अमोल ॥
दादू बिन बेसासी जीयरा, चंचल नांही ठौर ।
निश्चय निश्चल ना रहै, कछू और की और ॥
सांई सत संतोष दे, भाव भक्ति विश्वास ।
सिदक सबूरी साँच दे, माँगे दादू दास ॥
दादू हौं बलिहारी सुरति की, सबकी करै सँभाल ।
कीड़ी कुंजर पलक में, करता है प्रतिपाल ॥
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साभार ~ Rp Tripathi ~
**ऊर्जा :: ह्रास और विकास :: एक संक्षिप्त परिचर्चा**
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यदि एक शब्द में उत्तर देना हो कि, ऊर्जा का सर्वाधिक ह्रास और विकास किससे होता है ? तो इसका उत्तर है - "चिंता" !! चिंता के उदय होने से, ऊर्जा का सर्वाधिक ह्रास होता है, और चिंता के अस्त होने से, ऊर्जा का सर्वाधिक विकास !!
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इसलिए तो कहा जाता है कि :-
चिंता, चिता से भी ज्यादा भयानक है, क्योंकि इसमें, चिता से, एक बिंदी ज्यादा है !! चिता तो मृत शरीर को जलाती है, परन्तु चिंता तो जिन्दा शरीर को ही, इतना ऊर्जाहीन(हतोत्साहित/क्रोधित) कर देती है कि वह, मृत शरीर से भी ज्यादा, स्वयं और दूसरों के लिए, कष्ट - दायी बन जाता है !!
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हतोत्साहित/क्रोधित व्यक्ति के अंतर्मन में, अक्सर कुछ इस तरह का नकारात्मक अंतर्लाप चलता रहता है कि - आह ! मेरा समय कितना खराब है ? मैं जिस काम को हाथ लगाता हूँ, असफल हो जाता हूँ !! मैं किसी काम का नहीं हूँ !! पता नहीं, मैं इतना दुर्भाग्यशाली क्यों हूँ ? अब मेरा क्या होगा ? आदि आदि !!
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और सबसे दुःखद स्थित यह होती है कि - इन विचारों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता, अर्थात, वह उन्हें अपनी मर्जी से रोक नहीं पाता है !! उसकी स्थिति लगभग ऐंसी होती है, जैंसे ढलान पर दौड़ रही कोई कार, जिसका ब्रेक खराब हो गया हो !!
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दूसरे शब्दों में, चिंता-शील व्यक्ति - ना सिर्फ जीवित अवस्था में नर्क के कष्ट भोगता है, वरन यदि हम यह कहें कि ऐसा व्यक्ति तो, अपने अंदर ही एक नर्क लिए घूमता है, तो कोई अतिस्योक्ति नहीं होगी !! क्योंकि वह जहाँ भी जाता है, अपने साथ, नर्क ही ले जाता है !!
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अर्थात, वह जब भी वार्तालाप करता है, तो उसके पास, शिकवा - शिकायत के सिवाय, कुछ अन्य होता ही नहीं !! और चूंकि वह, जिन्दा रहते नर्क में रहता है, तो मरने बाद तो, नर्क में जाता ही है !!
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और सबसे आश्चर्य जनक बात तो यह होती है कि वह व्यक्ति - इस नर्क (चिंता/क्रोध) का, इतना आदी हो चुका होता है कि, यदि कोई उसे, इन्हें (चिंता/क्रोध आदि को) छोड़ने का कहे, अर्थात उसे स्वर्ग के भी दर्शन कराना चाहे, तो वह उसी तरह, और अधिक वैचैन हो उठता है, जैसे, शराब/सिगरेट या ड्रग्स के आदी व्यक्ति को, यदि कोई इन्हें छोड़ने को कहे ? और सिर्फ वैचैन ही नहीं होता, वरन उनके फायदे भी गिनाने लगता है !!
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इसके दुष्परिणामों की अधिक व्याख्या ना करते हुए, यदि हम व्यक्तियों से, सिर्फ यह जानना चाहें कि, यह चिंता क्या है ? तो हमें इसके बहुत ही आश्चर्य-जनक उत्तर मिलते है - लोग एक दुसरे से पूर्णतः बिरोधी कारणों की, एक बहुत बड़ी सूची पकड़ाने लगते हैं !! उदाहरणार्थ -
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कोई विवाहित है तो दुखी है, कोई अविवाहित है तो दुखी है !! कोई निःसंतान है तो दुःखी है, कोई संतान से दुःखी है !! कोई नौकरी ना मिलने से दुःखी है; तो कोई नौकरी से दुःखी है; आदि आदि !! और सबसे अधिक आश्चर्य तो तब होता है, जब एक ही व्यक्ति, एक समय में, जिसके अभाव से दुःखी था, दूसरे समय में वही व्यक्ति, उसी की उपलब्धि से दुखी हो जाता है !!
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परन्तु जब हम इस विषय में, थोड़ी सी भी गहराई से चिंतन करते हैं, तो पाते हैं कि - व्यक्ति ने, चिंता या दुःख का कारण, बाह - जगत को मान रखा है, जो सर्वदा अनुचित है !! चिंता या दुःख का कारण, बाह्य जगत के पदार्थ, घटनाएँ या व्यक्ति नहीं हैं, वरन वह है -
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उन व्यक्तियों की, किसी घटना, पदार्थ या व्यक्ति, आदि के प्रति, उनकी अपनी-अपनी, व्यक्तिगत प्रतिक्रियायें !! कोई भी परिस्थिति, व्यक्ति को, चिंतित करती है या नहीं ? यह इस बात पर निर्भर है कि वह व्यक्ति, उस स्थिति के प्रति, किस तरह से अपनी व्यक्तिगत प्रतिक्रिया व्यक्त करने का, निर्णय लेता है !!
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जिस व्यक्ति का व्यक्तित्व, दूसरों के प्रमाण-पत्रों पर खड़ा है, अर्थात जो जीवन में दूसरों से - अच्छे पति या पत्नी, अच्छे कर्मचारी, अच्छे पड़ोसी, अच्छे मित्र, आदि के प्रमाणपत्र इकट्ठे करने में व्यस्त है, वह तो चिंता से कभी मुक्त, हो ही नहीं सकता; क्योंकि उसने तो अपना बाल-सुलभ, आत्म-विश्वास ही खो दिया है !!
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क्योंकि, बच्चे के रूप में, कभी किसी व्यक्ति ने यह नहीं सोचा कि - लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे ? बच्चा तो दृढ़ता से, आत्म-केंद्रित हो कार्य करता है !! बच्चा, मनसा-वाचा-कर्मणा वही करता है, जो उसकी अंतरात्मा, उसे करने की प्रेरणा देती है !! वह इतना आत्म-संतुष्ट होता है कि वह कभी, दूसरों के प्रमाणपत्र की अपेक्षा नहीं रखता !! इस कारण वह कभी चिंतित नहीं रहता, और "सबसे बड़ा पाप, क्या कहेंगे आप ?" से, सदैव मुक्त रहता है !!
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यदि हम बच्चे के रूप में, व्यक्ति की मनोचेतना की थोड़ी और गहराई में जायें ? तो हमें पता चलता है कि, बच्चा अंदर से प्रसन्न हो, बाहर प्रसन्नता बिखेरता है !! वह पूर्णतः वर्तमान में जीता है !! उसके वर्तमान में जीने को, यदि हम और अधिक स्पष्टता से समझना चाहें ? तो कुछ इस तरह से समझ सकते हैं -
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मानलो एक बच्चा और एक वयस्क, दोनों एक साथ, किसी पिकनिक पर जाते हैं !! तो बच्चा तो, जो वस्तु सामने है, उसमें पूर्णतः खो जायेगा; उसका वर्तमान में ही भरपूर आनंद लेगा !!
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परन्तु वयस्क, किसी दृश्य को देखकर, या तो उसे कैमरे में कैद करने में अपना वर्तमान समय व्यतीत करने लगेगा, जिससे वह उसे, स्मृति(भूत/मृत) बना कर, भविष्य में उससे प्रसन्नता हासिल कर सके !! या किसी खिले फूल को देखकर, पुरानी स्मृतियों में खो जायेगा, जब किसी ने उसे इस तरह का फूल भेंट किया था !! यदि सुखद स्मृति है, तो वर्तमान फूल को छोड़, पुनः भूत(मृत/स्मृति) से सुखी होगा, और यदि दुखद स्मृति है, तो पिकनिक के सौन्दर्यतम वातावरण में भी वह दुखी रहेगा !!
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यदि इस विषय पर हम, थोड़ी और गहराई से चिंतन करें तो पाएंगे कि :- बच्चे के रूप में हम, अधिक पूर्णता/संतुष्टि की स्थिति में जीवन यापन करते है !! अपनी आवश्यकताओं के लिए निश्चित रहते हैं कि -
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जिस ईस्वर ने मुझे पैदा किया है, जिस तरह उसने मेरे शरीर के संरक्षण के लिए, प्रथम माँ की कोख दी, बाद में माँ का दूध, और माता-पिता द्वारा भोजन और खिलोने आदि, तो बाद में भी वही परमात्मा, समय-समय पर मुझे, जो मेरे लिए उचित होगा, उपलब्ध कराता रहेगा !! मेरा तो सिर्फ एक ही कार्य है, पूर्ण संतुष्टि से, पूर्ण विश्वास से, पूर्ण खिले हुए चेहरे से, जीवन-यापन करना !!
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परन्तु, जैंसे जैंसे हम वयस्क होते हैं, वैंसे वैंसे हम, ईस्वर की कृपा को भूलते जाते हैं, जब तक कि हम पर कोई, गहरा आघात ना आ जाए ? और फिर हमें फिर पुनः ज्ञात होता है कि - हम जानें या ना जानें, मानें या ना मानें, हमारे जीवन की प्रथम स्वांश से लेकर अंतिम स्वांश तक, वही परमात्मा हमें उपलब्ध करा रहा है, अतः हमें जरूरत है, पुनः बालवत स्वभाव में जीवन-यापन करने की !!
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बहुत संक्षेप में - हमें जरूरत है, ईस्वर की कृपा के प्रति जागरूक रह, निश्चिंतता और प्रसन्नता से, जीवन-यापन करने की !! प्रत्येक स्वांश को, पूर्ण संतुष्टि के साथ लेने की !! और हम यदि हम, यह एक ही पुरुषार्थ कर सकें ? अर्थात, सिर्फ पूर्ण संतुष्टि के भाव में स्थित हो, स्वांश लेने का पुरुषार्थ कर सकें ? तो चिंता हमारे जीवन से, उसी तरह दूर हो जाती है, जैंसे सूर्य के उदय होने पर, अँधेरा !!
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और इस पुरुषार्थ को सम्पादित करने के लिए, हमें कोई अलग से समय निकालने, या अलग से कोई, विधि भी अपनाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम स्वांश लेते-लेते ही कार्य करते हैं !! यदि स्वांश लेना रूक जाए ? तो, प्राण-वायु रुपी ऊर्जा के मूल स्रोत्त के अनुपस्थित होते ही, हमारे शरीर की अन्य सभी गतिविधियाँ, अपना संचलन बंद कर देती हैं, जिससे सम्पूर्ण शरीर, ऊर्जा-विहीन हो जाता है !! अतः हमें जरूरत है सिर्फ :- परमात्मा की कृपा से प्राप्त हो रहीं, इन अमूल्य - स्वांशों को, पूर्ण संतुष्टि के भाव से लेने की !!
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संतुष्टि के भाव से ली गईं स्वांशों से, इतनी ऊर्जा संचित हो जाती है कि -
हमारे सभी कार्य, सहजता से संपन्न होने लगते हैं !! और यदि हमारी यह वर्तमान स्वांश, जीवन की अंतिम स्वांश भी हो, तो भी इसे, 100% संतुष्टि के भाव से लेंने से, हमारा मरण भी, सुमरण(सु : अर्थात, अच्छा मरण) हो जाता है !! क्योंकि परमात्मा पर, श्रद्धा-विश्वास का मार्ग(भक्ति-मार्ग) इतना अनोखा है कि, इस पर चलकर प्रभु बाद में मिलेंगे ऐसा नहीं है, इस पर तो पहला कदम रखते ही, प्रभु साथ हो जाते हैं !!
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अतः पहली ही स्वांश, पूर्ण संतुष्टि के भाव से भरपूर हो, लेकर तो देखें मित्रो और फिर अनुभव करें - किस तरह चिंता - क्रोध आदि विकार, नष्ट होते है, अर्थात इन विकारों में नष्ट हो रही हमारी ऊर्जा का, संरक्षण होता है ? और फिर इस आलेख की सत्यता पर, अपने बहुमूल्य सुझाव लिखें !!
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********ॐ कृष्णम् वन्दे जगत गुरुम********
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