बुधवार, 3 जून 2015

#‎daduji‬ 
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
२३८. रस । त्रिताल ~
मैं अमली मतवाला माता, प्रेम मगन मेरा मन राता ॥ टेक ॥ 
अमी महारस भर भर पीवै, मन मतवाला जोगी जीवै ॥ १ ॥ 
रहै निरन्तर गगन मंझारी, प्रेम पियाला सहज खुमारी ॥ २ ॥ 
आसण अवधू अमृतधारा, जुग जुग जीवै पीवणहारा ॥ ३ ॥ 
दादू अमली इहि रस माते, राम रसायन पीवत छाके ॥ ४ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें, प्रभु - प्रेम रस की विशेषता दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हम प्रभु की प्रेमा - भक्ति रूप रस के अमली मात = मस्त रहने वाले हैं । हमारा मन, प्रभु - प्रेम में मग्न होकर उसी में रत्त हो रहा है । नाम - स्मरण रूप महा अमृत रस को पुन - पुनः वृत्ति द्वारा पी रहे हैं । इस प्रकार हमारा मन रूप मतवाला योगी सदा सजीवन भाव को प्राप्त हो रहा है । हृदय रूप कमल में ही निरन्तर प्रभु के स्वरूप में वास करता है और एकत्व भाव रूप प्रेम का प्याला पीकर स्वभाव से ही खुमारी नशे में मस्त हो रहे हैं । हृदय रूप आसन पर ही मन रूपी अवधूत प्रभु के अखंड दर्शन रूप अमृत धार को पी रहा है । ऐसे मन युग - युग में सजीवन भाव को प्राप्त हो रहा है । इस ब्रह्म रस के मतवाले अमली, राम - रस को पीते - पीते छक रहे हैं अर्थात् तृप्त हो रहे हैं, और पीते जा रहे हैं ।
भांग तमाखू छूंतरा, उतर जाइ परभात । 
‘खेम’ खुमारी नांव की, चढ़ी रहै दिन रात ॥

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