शनिवार, 3 अक्टूबर 2015

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राम तूँ मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥टेक॥
एकै संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥१॥
तन मन तुम कौं देबा, तेज पुंज हम लेबा ॥२॥
रस माँही रस होइबा, ज्योति स्वरूपी जोइबा ॥३॥
ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव पराभक्ति दिखा रहे हैं कि हे राम ! आप हमारे स्वरूप हो और हम आपके स्वरूप हैं, परन्तु फिर भी मैं आभास रूप से आपका सेवक हूँ, आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ । बारबार आपसे विनती करता हूँ । आपके साध ही मेरा वास है, कूटस्थ ब्रह्म से अभेद ही हैं । मैं आभास रूप आपका दास हूँ और आप मेरे स्वामी हो ।
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हम अपना तन और मन, लय चिन्तन द्वारा, आपमें ही अभेद करते हैं । और तेज समूह रूप आपके ब्रह्म - स्वरूप का हम दर्शन कर रहे हैं । व्यष्टि समष्टि की एकता रूपी रस में रस का अभेद करते हैं । हे ज्योति स्वरूप ! अब तो आपका ही हम तन - मन में अनुभव कर रहे हैं । ब्रह्मऋषि कहते हैं कि उपरोक्त पराभक्ति द्वारा जीव ब्रह्म की एकता होने के बाद केवल शुद्ध स्वरूप ही एक शेष रह जाता है ।
छन्द ~
सेवक सेव्य मिल्या रस पीवत,
भिन्न नहीं अरु भिन्न सदा ही ।
ज्यूं जल बीच धर्यो जल पिंड सु,
पिंड रु नीर जुदे कछु नांही ।
ज्यूं दृग में पुतली दृग एकसु,
नहीं कछु भिन्न रु भिन्न दिखाई ।
सुन्दर सेवक भाव सदा यह,
भक्ति परा परमातम मांही ।

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