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॥ श्री दादूदयालवे नम:॥
अथ राग सूहा २२ ~
(गायन समय दिन ९ से १२)
३५४. विनती । एक ताल ~
तुम बिच अंतर जनि परै, माधव ! भावै तन धन लेहु ।
भावै स्वर्ग नरक रसातल, भावै करवत देहु ॥ टेक ॥
भावै विपति देहु दुख संकट, भावै संपति सुख शरीर ।
भावै घर वन राव रंक कर, भावै सागर तीर, माधव ॥ १ ॥
भावै बँध मुक्त कर, माधव ! भावै त्रिभुवन सार ।
भावै सकल दोष धर माधव, भावै सकल निवार, माधव ॥ २ ॥
भावै धरणि गगन धर, माधव ! भावै शीतल सूर ।
दादू निकटि सदा संग, माधव ! तूँ जनि होवै दूर, माधव ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव इसमें विनती करते हैं कि हे माधव ! माया को अपनी आज्ञा में चलाने वाले हमारे स्वामी ! चाहे आप हमारा तन - धन आदि सर्वस्व ले लें, किन्तु आपके और मेरे बीच में किसी प्रकार का अन्तराय नहीं १पड़ना चाहिये, सदैव आपके हमें दर्शन होते रहें । चाहे मुझे आप स्वर्ग, नरक या रसातल में भेज दें, इसकी चिन्ता नहीं है । शिर पर करवत चलावें, चाहे सम्पूर्ण विपत्ति में डालें, शारीरिक दुःख दें या मानसिक संकट प्राप्त हों, इनकी चिन्ता नहीं है, पर आपके दर्शनों से अलग न होवें । घर - प्रवृत्ति मार्ग में रखें, या वन - निवृत्ति मार्ग में रखें, राजा या रंक करें, चाहे समुद्र के किनारे रखें, चाहे बन्धन में डालें । चाहे सब कर्म - बन्धनों से मुक्त कर दें, चाहे त्रिभुवन की सम्पूर्ण सार वस्तुएँ हमें दे दें । चाहे सब दोष हृदय में रख दें, या हृदय में हटा दें । चाहे पृथ्वी पर हमको रखें या आकाश में उड़ावें । चाहे बर्फ की तरह शीतल बना दें, चाहे सूर्य के समान उष्ण बना दें । हे हमारे स्वामी माधव ! चाहे आप कुछ भी कर दें, परन्तु सदा आप हमारे निकट रहते हुए मुझे अपने संग रखिये, कभी भी आप हमसे दूर न हों, यही हमारी विनती है ।
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