मंगलवार, 17 नवंबर 2015

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एक कहूँ तो दोइ हैं, दोइ कहूँ तो एक ।
यों दादू हैरान है, ज्यों है त्यों ही देख ॥
देख दीवाने ह्वै गए, दादू खरे सयान ।
वार पार कोई ना लहै, दादू है हैरान ॥
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साभार : Anand Nareliya ~
एक दूकान पर मैंने एक खिलौना देखा, कई टुकड़े में। जिसे जमा कर बच्चे पूरा खिलौना बनायेंगे। मैंने लाख कोशिश की उसको जमाने की, वह जमे न। तो मैंने उस दूकानदार को कहा कि ‘बड़ा मुश्किल मामला है। इसे मैं भी नहीं जमा पा रहा हूं। तुमने भी कभी कोशिश की है इसको जमाने की ? इसको कोई बच्चा कैसे जमायेगा ?’
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उसने कहा, ‘कोशिश तो मैंने भी की है, जमता नहीं। और भी कई लोग कोशिश कर चुके हैं। और जब किसी से भी नहीं जमा तो मैंने कंपनी को लिख कर पूछा। उन्होंने कहा कि वह जमेगा ही नहीं। वह तो बच्चे को यह अनुभव देने के लिए कि जिंदगी इस तरह की है, खिलौना बनाया। वह जमने वाला है नहीं। उस खिलौने का राज ही यही है कि बच्चे को यह अकल आनी शुरू हो जाये, कि जिंदगी जमने वाली नहीं है।’
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तुम कितनी ही कोशिश करो यह गैर-जमी रहेगी। गैर-जमा होना इसका स्वभाव है। बाहर के प्रश्न और बाहर के उत्तर कुछ भी जमा न पायेंगे। कितना ही जमाओ ! कितने दर्शनशास्त्र, कितने विचार की परंपरायें हैं। क्या खाक ! कुछ भी नहीं जम पाया। एक के पास उत्तर नहीं है। और सब बड़े-बड़े उत्तर दिए हैं।
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हां, अगर तुम उसी घर में पैदा हुए हो जिनमें वह शास्त्र पूजा जाता है, तो तुम्हें शायद उत्तर दिखाई पड़े। क्योंकि तुम बचपन से ही अंधे किए गए हो। अन्यथा अगर तुम जरा भी छूट जाओ अपने अंधेपन से, और घर की कंडिशनिंग से, संस्कार से, तो तुम पाओगे हर शास्त्र बड़ी अजीब सी बात कह रहा है। क्योंकि उसमें मूल तो प्रश्न का कोई उत्तर ही नहीं है।
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हिंदू कहते हैं, परमात्मा ने जगत बनाया। क्योंकि बिना किसी के बनाये कोई चीज हो कैसे सकती है ? और तुम कभी नहीं पूछते कि परमात्मा को किसने बनाया ? अगर तुम पूछो तो वे कहते हैं यह अतिप्रश्न हो गया। जहां उत्तर नहीं है उनके पास, वहां अतिप्रश्न है। मगर पहला प्रश्न अतिप्रश्न नहीं था, कि संसार को किसने बनाया ?
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तब तुमने दलील दी कि बिना बनाये कोई चीज हो कैसे सकती है ? अब तुम्हारी ही दलील का हम उपयोग कर रहे हैं कि परमात्मा को किसने बनाया, तो तुम कहते हो जबान गिर जायेगी, अतिप्रश्न मत करो।
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याज्ञवल्क्य जैसा विचारशील व्यक्ति भी जनक के दरबार में गार्गी से बोला कि ‘तू अतिप्रश्न कर रही है गार्गी। तेरा सिर गिर जायेगा।’ जनक ने एक दरबार बुलाया था। और वहां जो सबसे बड़ा ब्रह्मज्ञानी सिद्ध होगा, उसे उसने हजार गौएं, सोने से मढ़े हुए सींग, हीरे-जवाहरात से लदी हुई खड़ी रखी थीं। करोड़ों का मूल्य था उनका। वे उसे भेंट मिलेंगी। याज्ञवल्क्य ने सभी पंडितों को हरा दिया, लेकिन एक स्त्री को हराने में बड़ी मुसीबत हो गई।
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उसका कारण है। क्योंकि पुरुष के तर्क की विधि अलग है, स्त्री के तर्क की विधि अलग है। इसलिए याज्ञवल्क्य मुश्किल में पड़ गया। स्त्री का तर्क बिलकुल अलग है। उसमें शृंखला नहीं है, छलांग है। इसलिए पति की कभी पत्नी से ठीक से बातचीत हो ही नहीं पाती। तुम कुछ कहते हो, वह कुछ कहती है। उसमें कहीं मेल ही नहीं होता। वह जमता ही नहीं है खिलौना। कितना ही जमाओ। आखिर में पति धीरे धीरे चुप ही हो जाता है। क्योंकि उसमें कोई सार नहीं है।
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एक आदमी अखबार से पढ़ कर अपनी पत्नी को सुना रहा था कि एक घटना छपी है इसमें। एक घोड़े ने एक आदमी को लात मार दी और वह बोलने लगा। तो पत्नी ने पूछा, ‘क्या वह शादीशुदा था ?’ पति ने कहा ‘हां। इसमें लिखा है, चार बच्चे भी थे उसके।’ पत्नी ने कहा, ‘इससे अच्छा होता, वह तलाक ले लेता।’ इससे ज्यादा सरल होता बोलने का ढंग कि तलाक ले लेता, बजाय घोड़े की लात खाने के।
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कोई पति नहीं बोलता। धीरे-धीरे बोलना बंद हो जाता है क्योंकि सवाल यह है, कहीं मेल ही नहीं पड़ता। बोलते हैं, कि झंझट ही बढ़ती है। स्त्री का तर्क और है। उसका तर्क नहीं है। वह इंटयूटिव है, अंतःप्रज्ञात्मक है। उसकी धारा ही अलग है। पति है यूक्लिड की ज्यामेट्री जैसा और स्त्री है नॉन-यूक्लिडन ज्यामेट्री जैसी। उनकी परिभाषायें, जीवन के सोचने के ढंग ही अलग हैं। होने ही चाहिए। क्योंकि दोनों का चित्त, शरीर रसायन, सब अलग है। उनकी तर्क की विधि भी एक नहीं हो सकती।
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सब पंडितों को तो हरा दिया याज्ञवल्क्य ने, क्योंकि वे सभी पुरुष थे। जो बात याज्ञावल्क्य कहता था उनकी समझ में पड़ती थी। लेकिन गार्गी ने मुश्किल खड़ी कर दी। और याज्ञवल्क्य को वही करना पड़ा, जो हर पति को करना पड़ता है। यह बड़े मजे की बात है, कि चाहे बुद्धू, चाहे बुद्धिमान; स्त्री के साथ आखिरी व्यवहार वही करना पड़ता है।
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याज्ञवल्क्य ने कहा कि, ‘संसार को ब्रह्मा ने बनाया।’ और गार्गी ने पूछा कि ‘ब्रह्मा को किसने बनाया याज्ञवल्क्य?’ और याज्ञवल्क्य ने वही किया, जो कोई पति अपने पत्नी के साथ करता है, कि उसकी खोपड़ी पर एक डंडा मारे, या लड़ने को खड़ा हो जाये। याज्ञवल्क्य ने कहा कि ‘यह अतिप्रश्न है। अगर तूने आगे पूछा तो सिर गिर जायेगा।’ इसके बाद क्या हुआ पता नहीं। क्योंकि वह जमात पुरुषों की थी। उन्होंने निर्णय याज्ञवल्क्य के पक्ष में लिया होगा। जनक की बुद्धि भी पुरुष की थी।
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लेकिन बात साफ है, कि प्रश्न अधूरा रह गया। और याज्ञवल्क्य हार गया। उत्तर नहीं है। उत्तर नहीं होता तभी क्रोध आता है। नहीं तो सिर टूट जाने का सवाल क्या है? गार्गी ने नस पकड़ ली। आखिरी सवाल उठा लिया। और याज्ञवल्क्य समझ गया कि अब इसका उत्तर दिया, कि मुश्किल में पड़ोगे। क्योंकि यह पूछती ही चली जायेगी, कि फिर उसको किसने बनाया ? फिर उसको किसने बनाया ? और आखिर में झंझट आयेगी ही। क्योंकि आखिर तो इसका होनेवाला नहीं है।
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लेकिन सभी दर्शनशास्त्र इसी हालत में हैं। जैन कहते हैं, ईश्वर बनानेवाला नहीं है। तो उन्होंने एक झंझट से बचने की कोशिश की। एक दर्शनशास्त्र दूसरे दर्शनशास्त्र की झंझट से बचने की कोशिश करता है, लेकिन अपनी झंझट में पड़ जाता है। वे बच गये एक झंझट से कि ईश्वर बनानेवाला नहीं है, सृष्टि अपने आप बनी।
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लेकिन तब सवाल यह है कि आत्मा बंधन में कैसे पड़ी ? बड़ी मुसीबत है। वे कहते हैं, ‘आत्मा मुक्त हो जायेगी।’ लेकिन पूछनेवाला यह पूछता है कि मुक्त हो जायेगी तो समझ लिया आखिर में, लेकिन बंधन में तो शुरुआत में कैसे पड़ी ? अगर तुम उनसे कहो कि कर्मों के कारण; तो वे कहते हैं कि कर्मों के कारण का मतलब हुआ कि पिछले जन्म में कर्म किए, इस जन्म में पैदा हुए। लेकिन बिलकुल प्रारंभ में, उसके पहले तो कर्म का कोई सवाल ही नहीं है। बस, अतिप्रश्न आ गया ! और जैन कहते हैं कि बस, यह कुतर्क है। तुम जो करो वह तर्क, दूसरा जो करे वह कुतर्क ?
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लेकिन सभी दर्शनशास्त्र में एक छेद होगा। उस छेद को भर मत छूना। अन्यथा दार्शनिक नाराज हो जायेगा। जब तक तुमने उस छेद को न छुआ, और वह तुम्हें इस तरह चक्कर देगा कि उस छेद भर का तुम्हें पता न चले। सब तरफ तुमको भटकायेगा। सब जवाब देगा। बस, एक बात तुम मत पूछना। उसके पहले ही अगर तुम थक गये और कहा कि ठीक है, झंझट मिटाओ। हम तुम्हारे पीछे चलते हैं, तो वह प्रसन्न है।
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अनुयायी सब इसी तरह पीछे हैं। उन्होंने मूल छेद नहीं देखा, जो हर जगह है। क्योंकि विचार से कोई उत्तर न कभी मिला है, न मिल सकता है। सब दर्शनशास्त्र विचार का ही फैलाव हैं। विचार अंतिम सत्य को दे नहीं सकता। विचार तो केवल धारणाओं को परिपुष्ट कर सकता है। और कोई धारणा सत्य नहीं है। धारणाशून्य चित्त में सत्य की समझ, सत्य का अनुभव, सत्य का प्रकाश होता है।,,,,,osho

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