मंगलवार, 17 नवंबर 2015

(३२ . अद्वैत ज्ञान को अंग=२४)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३२. अद्वैत ज्ञान को अंग*
*श्रोत्र कछु और नांहि नेत्र कछु और नांहि,* 
*नासा कछु और नांहि रसना न और है ।*
*त्वक कछु और नांहि वाक कछु और नांहि,* 
*हाथ कछु और नांहि पांवन की दौर है ॥*
*मन कछु और नांहि बुद्धि कछु और नांहि,* 
*चित्त कछु और नांहि अहंकार तौर है ।*
*सुन्दर कहत एक ब्रह्म बिनु और नांहि,* 
*आपु ही मैं आपु ब्यापि रह्यौ सब ठौर है ॥२४॥* 
॥ इति अद्वैत ज्ञान को अंग॥३२॥
ब्रह्म सर्वमय : न श्रोत्र ब्रह्म से अन्य है, न नेत्र; न नासिका उससे अन्य है, न रसना ही कुछ अन्य है । 
न त्वचा अन्य है, न वाणी; न हाथ या पैर ही कोई अन्य है । 
न मन, न बुद्धि, न चित्त या अहंकार ही ब्रह्म से भिन्न है । 
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - यहाँ एक ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है । यहाँ तो ब्रह्म स्वयं में व्याप्त होकर सर्वत्र व्याप्त हुआ दिखायी देता है ॥२४॥ (सर्व खल्विदं ब्रह्म) 
॥अद्वैत ज्ञान का अंग सम्पन्न॥३२॥ 
(क्रमशः)

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