शनिवार, 14 नवंबर 2015

(३२ . अद्वैत ज्ञान को अंग=२१)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३२. अद्वैत ज्ञान को अंग*
*ब्रह्महि मांहि बिराजत ब्रह्म हि,* 
*ब्रह्म बिना जिनि और हि जांनौ ।* 
*ब्रह्म हि कुंजर कीट हु ब्रह्म हि,* 
*ब्रह्म हि, रंक रु ब्रह्म हि रांनौ ।*
*काल हु ब्रह्म सुभाव हु ब्रह्म हि,* 
*कर्म हु जीव हु ब्रह्म बखानौं ।* 
*सुन्दर ब्रह्म बिना कछु नांहि न,* 
*ब्रह्म हि जांनि सबै भ्रम भांनौ ॥२१॥* 
*ब्रह्म की ब्रह्म में ही स्थिति* : ब्रह्म ही ब्रह्म में स्थित है । यहाँ ब्रह्म के अतिरिक्त किसी अन्य को समझने की मूर्खता न करो । 
यहाँ ब्रह्म ही हाथी(महतो महीयान्) है, ब्रह्म ही चींटी(अणोरणीयान्) है । ब्रह्म ही दरिद्र है और ब्रह्म ही राजा भी है । 
शास्त्रोक्त काल, स्वभाव, कर्म एवं जीव-सब कुछ ब्रह्म ही है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यहाँ(इस जगत् में) ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है अतः(जगत् को) एकमात्र ब्रह्ममय जानकर अपने चित्त से अन्य भ्रम दूर कर दो ॥२१॥ 
(क्रमशः)

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