मंगलवार, 17 नवंबर 2015

पद. ३९५

卐 सत्यराम सा 卐
३९५. दादरा ~
हिंदू तुरक न जानूं दोइ ।
सांई सबन का सोई है रे, और न दूजा देखूं कोइ ॥ टेक ॥ 
कीट पतंग सबै योनिन में, जल थल संग समाना सोइ ।
पीर पैगम्बर देवा दानव, मीर मलिक मुनिजन को मोहि ॥ १ ॥ 
कर्ता है रे सोई चीन्हौं, जनि वै क्रोध करे रे कोइ ।
जैसे आरसी मंजन कीजे, राम रहीम देही तन धोइ ॥ २ ॥ 
सांई केरी सेवा कीजे, पायो धन काहे को खोइ ।
दादू रे जन हरि जप लीजे, जन्म जन्म जे सुरिजन होइ ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव निष्पक्ष मार्ग दिखा रहे हैं, कि हे जिज्ञासुओं ! हम हिन्दू और मुसलमान दो नहीं समझते । इस भेद का हमने त्याग किया है, क्योंकि दोनों का स्वामी एक चैतन्य रूप परमेश्‍वर ही है, उसके सिवाय दूसरे को हम नहीं देख रहे हैं । जल तथा स्थल के कीट, पतंग आदि सभी योनियों में वह चैतन्य स्वरूप परमेश्‍वर व्यापक रूप से सबके साथ रह रहा है । वह परमेश्‍वर पीरों, पैगम्बरों, देवता, दानव, सरदारों, बादशाह और मुनिजन आदि सबको मोहित करता है । इसलिये उस सृष्टि रचयिता परमेश्‍वर को ही चैतन्य रूप से पहचानो । उसके स्वरूप का विचार किये बिना कोई भी हिन्दू, मुसलमान, साम्प्रदायिक पक्ष को लेकर झगड़ा न करें, क्योंकि वह चैतन्य स्वरूप आत्मा सबमें एक ही व्यापक रूप से स्थित हो रहा है । जिस प्रकार शीशे को मांजकर साफ करने से मुख आदि सम्पूर्ण शरीर ठीक दिखाई देता है, वैसे ही अपने - अपने अन्तःकरण रूप दर्पण को, निष्काम अल्लह और राम के नाम - स्मरण द्वारा पवित्र बनाओ । फिर राम और रहीम दोनों एक रूप ही दिखाई पड़ेंगे । इस प्रकार निष्पक्ष मध्य मार्ग द्वारा चैतन्य स्वरूप परमेश्‍वर की भक्ति करो । और जन समुदाय में उसी का आत्म - रूप से दर्शन करो । यही परमेश्‍वर की सच्ची सेवा है । यह मनुष्य देह रूपी अपूर्व धन अबके प्राप्त हुआ है, इसको पक्षपात, रूप, राग द्वेष के कामों में वृथा क्यों गमाते हो ? ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव कहते हैं कि हे जनों ! जन्म - मरण के दु:खों से सुलझना है तो, चैतन्य स्वरूप हरि का निष्पक्ष नाम - स्मरण करिये

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