सोमवार, 16 नवंबर 2015

(३२ . अद्वैत ज्ञान को अंग=२३)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३२. अद्वैत ज्ञान को अंग*
*= मनहर छंद =* 
*द्वैत करि देखै द्वैत ही दिखायी देत,* 
*एक करि देखै तब उहै एक अंग है ।* 
*सूरज को देखै सब सूरज प्रकासि रह्यौ,* 
*किरन कौं देखैं तौ किरन नाना रंग है ॥* 
*भ्रम जब भयौ तब माया अैसी नांम धर्यौ,* 
*भ्रम कै गये तैं एक ब्रह्म सरवंग है ।* 
*सुन्दर कहत याकौ दृष्टि ही कौ फैर भयौ,* 
*ब्रह्म अरु माया कै तो माथै नहीं श्रृंग है ॥२३॥* 
*विवेकी की अद्वैत दृष्टि* : जब कोई अविवेकी पुरुष द्वैत दृष्टि से इस जगत् के क्रियाकलाप को देखता है उसे सर्वत्र द्वैत ही दिखायी देता है । इसके विपरीत, जब कोई विवेकी इस दृश्यमान जगत् को अभेद दृष्टि से देखता है तब उसे एकमात्र ब्रह्म ही दिखायी देता है । 
यदि हम सूर्य को एकान्ततः देखें तो सब तरफ सूर्य का प्रकाश ही समझ में आता है, परन्तु जब कोई उस की किरणों की ओर ही ध्यान दे लेता है तब उस को सूर्य कि करणें ही विविध रंग वाली दिखायी देती है । 
जब यहाँ किसी को भ्रम होता है तब उस भ्रम को ‘माया’ कहा जाता है । इस भ्रम के मिट जाने पर उसको सर्वत्र जगत् के सभी अंग ब्रह्ममय दिखायी देते हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह द्वैत या अद्वैत का ज्ञान केवल बुद्धिभ्रम है । अन्यथा ब्रह्म और माया के शिर पर सींग नहीं है कि वे सबसे जाकर उलझते फिरैं ॥२३॥ 
(क्रमशः)

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