गुरुवार, 24 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५४ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५४ दिन ३६ =*
*= अकबर का वर माँगना, दादूजी का हरि पर छोड़ने का उपदेश करना =*
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बातों ही पहुँचे नहीं, घर दूर पयाना ।
मारग पंथी उठ चले, दादू सोइ सयाना ॥
मिश्री मिश्री कीजिये, मुख मीठा नांहीं ।
मीठा तब ही होयगा, छिटकावे मांहीं ॥
जिसका घर दूर हो और पैरों से ही चलता हो, वह घर चलने की बातें ही करता रहे तो घर नहीं पहुँच सकता किंतु जो घर जाने की बातें विशेष रूप से न करके मार्ग में चल पड़ता है, वही बुद्धिमान है । वह अवश्य घर पहुँच जाता है, वैसे ही जो भक्ति की विशेष रूप से बातें ही करता है, वह तो प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता किंतु भक्ति करने वाला प्रभु को अवश्य प्राप्त कर लेता है । यह सबको प्रत्यक्ष है, मिश्री-मिश्री कहने से मुख मीठा नहीं होता है । किंतु मिश्री को मुख में डालने से ही मुख मीठा होता है, वैसे भक्ति करने से ही भगवान् प्राप्त होते हैं, भक्ति की बातें करने से नहीं प्राप्त होते ।
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उक्त उपदेश सुनकर भी बादशाह ने कहा - स्वामिन् ! आप तो दिन रात ईश्वर की भक्ति करते हो, सर्व समर्थ हो और मैं आप पर श्रद्धा भी रखता हूँ, अतः कुछ तो आशीर्वाद देने की कृपा करो । अकबर का उक्त कथन सुनकर दादूजी महाराज ने कहा - हे हजरत ! मेरा तो विचार यह है -
"ज्यों रचिया त्यूं होयगा, काहे को शिर लेय ।
साहिब ऊपर राखिये, देख तमासा येह ॥
सहजैं सहजैं होयगा, जे कुछ रचिया राम ।
काहे को कल्पे मरे, दुखी होत बेकाम ॥
सांई किया सो हो रह्या, जे कुछ करे सो होय ।
करता करे सो होत है, काहे कल्पै कोय ॥
करता करे तो निमष में, कीड़ी कुंजर होय ।
कुंजर तैं कीड़ी करे, मेट सके नहिं कोय ॥
दादू करता करै तो निमष में, राई मेरु सामान ।
मेरु को राई करे, तो को मेटे फरमान ॥
करता करे तो निमष में जल माँहीं थल थाप ।
थल मांहीं जल हरि करे, ऐसा समर्थ आप ॥"
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उक्त उपदेश सुनकर भी बादशाह का मन निष्काम नहीं हुआ, तब दादूजी ने कहा - -
"दादू तन मन लाय कर, सेवा दृढ़ कर लेय' ।
ऐसा समर्थ आप है, जे माँगे सो देय ॥"
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फिर भी उत्तम भक्त भगवान से कुछ भी नहीं मांगते और जो पुत्र, स्त्री धन माँगते हैं वे तो कनिष्ट भक्त ही कहे जाते हैं, उत्तम नहीं कहे जाते ।
फल कारण सेवा करे, माँगे मुग्ध गँवार ।
दादू ऐसे बहुत हैं, फलके भूंजण हार ॥
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सांसारिक वस्तु रूप फल प्राप्ति के लिये भक्ति करने वाले तो माया से मोहित होकर माँगते हैं किन्तु वे बुद्धिमान् न होकर गँवार ही हैं और ऐसे फल भोग की इच्छा वाले संसार में होते भी बहुत हैं । निष्कामी भक्त तो कम ही होते हैं ।
फल कारण सेवा करे, याचे त्रिभुवन राव ।
दादू सो सेवक नहीं, खेले अपणा दाँव ॥
स्वारथ सेवा कीजिये, तातैं भला न होय ।
दादू ऊपर बाहि कर, कोठा भरे न कोय ॥
सूत वित माँगे बावरे, साहिब सी निधि मेल ।
दादू वे निष्फल गये, जैसे नागर बेल ॥
स्वार्थ पूर्ण सेवा भक्ति से परमात्मा प्राप्त नहीं होते, स्वार्थ ही सिद्ध होता है । परमार्थ दृष्टि से वे प्राणी प्रभु प्राप्ति रूप फल से रहित ही जन्मादि संसार दुःख भोगते हैं ।
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तन मन लै लागा रहै, राता सिरजन हार ।
दादू कुछ माँगे नहीं, ते विरले संसार ॥
तन, मन और बुद्धि वृत्ति लगाकर जो परमात्मा में अनुरक्त रहते हैं और प्रभु से कुछ भी नहीं माँगते, ऐसे भक्त संसार में विरले ही हैं ।
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इतना उपदेश करके सत्संग का समय समाप्त हो जाने से दादूजी मौन हो गये । फिर अकबर आदि भी प्रणाम कर तथा दादूजी से आज्ञा लेकर अपने-अपने भवनों को चले गये । दादूजी के शिष्य संत भी अपनी दैनिक साधना में लग गये ।
= इति श्री दादू चरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३६ विन्दु ५४ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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