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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*रजनी मांहिं दिवस हम देख्यौ,*
*दिवस मांहिं हम देषी राति ।*
*तेल भर्यो संपूरन तामैं,*
*दीपक जरै जरै नहिं बाति ॥*
*पुरुष एक पानी मांहिं प्रगट्यौ,*
*ता निगुरा की कैसी जाति ।*
*सुन्दर सोई लहै अर्थ कौं,*
*जो नित करै पराई ताति ॥११॥*
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*= ह० लि० १ टीका =*
रजनी = निवृत्ति(अवस्था) । दिवस = ब्रह्मनिष्ठा । दिवस और राति = प्रवृत्ति और अज्ञान । तेल = स्नेह(ब्रह्मानन्द) । दीपक जरै = ज्ञान प्रकाशमान होवै । बाति = ब्रह्मानन्दवृत्ति । पुरुष = परब्रह्म । पानी = प्रेम । निगुरा = ब्रह्म । पराई = जगत मिथ्या की । ताति = निंदा ॥११॥
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*= ह० लि० २ री टीका =*
रजनी नाम निवृत्ति तामैं दिवस नाम ब्रह्मानिष्ठा नाम प्रकाशमान गया देख्यो । दिवस नाम जो प्रवृत्ति धर्म तामें अज्ञानरूपी रात्रि देखी अर्थात् जहाँ प्रवृत्ति होय तहां अज्ञान ही होय ।
तेल नाम स्नेह(अर्थात्) अत्यन्त सचिक्कण जो फेर छूटै नहीं एसो ब्रह्मानन्द रस पूरण जामैं एसो ज्ञानरूप दीपक प्रकाशमान है तामैं धाता ध्यानादिरूपा वृत्ति नहीं प्रकाशै है ध्येयाकार अखंड ज्ञान प्रकाशमान है । यद्वा जामैं स्नेहरूपी तेल परिपूर्ण ऐसी जो प्राणरूपी दीपक जरै है शरीर मैं प्रकाशरूप बणि रह्यौ है सो परिणामरूप प्रकाशमान है । अरु बाती जो ब्रह्माकार वृत्ति सो एकरस प्रकासै है, नहिं जरै नाम नहीं खंडन होय है ।
पुरुष एक परमेश्वर पाठांतर निगुना नाम त्रिगुनातीत परमात्मा की कैसी जाति । न कोई जाति है । अरु सर्व जातिरूप वो ही है ।
या का अर्थ कों सो(पुरुष) लहै जो पराई नाम आत्मचेतन सों । भिन्न देहादि संसार ताकी ताति नाम नित्य निन्दा करै । क्यूंकरि करै जगत् मिथ्या है यों करै ॥११॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
अज्ञानकाल में परब्रह्म ही मानों रात्रि है । काहेतें ? जो अज्ञानी होवै है सो कदे भी अपने कूं ब्रह्मरूप मानैं नहीं, किन्तु ब्रह्म तैं भिन्न मानै है । औ जो कोई कहै कि “तूं आत्मा ब्रह्मरूप है” तो सुनि के ताकूं बड़ा भय होवे है औ कहै कि - “मैं तो कर्त्ता-भोक्ता, सुखी - दुखी, पाप - पुन्यवान जीव हूँ औ इश्वर का दास हूँ, मैं आत्मा हूँ यह कैसे कह्या जावै ?” यही मानों तिस रात्रि में भय है । औ जो “मैं आत्मा ब्रह्मरूप होवौं तो सो अपना स्वरूप मेरे कूं भासना चाहिये सो तो भासै नहीं । तातैं मैं आत्मा ब्रह्म नहीं हूँ ।” यही मानों ब्रह्म रात्रि आवरण है । ऐसी परब्रह्मरजनी मांहि ज्ञानकाल में हम दिवस देख्यो । काहेतें कि ज्ञानी अपने कूं ब्रह्मरूप मानै है, और अहं ‘ब्रह्मास्मि’ कहेतें कछु डरै नहीं, औ अपना शुद्ध सच्चिदानस्वरूप आत्मस्वरूप जैसा है तैसा देखै हैं । ऐसे तिस रात्रि कूं हम दिवस देख्यो है कहिये जान्यों है । ज्ञानी कूं परब्रह्म जैसा है तैसा भासै है, तामें पूर्वोक्त भय अथवा आवरण कछू नहीं होवै है । तातैं सो परब्रह्म ही मानों दिवस है । ता मांहि अज्ञांनकाल में जगतरूप कार्य्य सहित अविद्या प्रतीत होती थी, तैसे ही ज्ञानकाल में प्रतीत होवै है । परन्तु इतना भेद है - अज्ञानकाल में सत्यतापूर्वक प्रतीत होती थी, तैसे अज्ञानकाल में प्रतीत होवै नहीं । किन्तु दग्धपट की न्याई बाधितानुवृत्ति करि प्रतीत होवै है । ऐसे हम राति देखी है ।
देश काल और वस्तु के परिच्छेद तैं रहित जो ब्रह्म है सो सम्पूर्ण व्यापक है, यही मानों सम्पूर्ण तेल भर्यो है तामें माया औ अविद्या उपहित जो साक्षी चेतन है सोही मानौं दीपक है सो जरै है कहिये तिस माया और अविद्या के कार्य्यरूप कज्जल कूं प्रकाशै है । वे माया औ अविद्यास्वरूप से जड़ और परप्रकाश होने से सोही मानों बात कहिये बत्ती हैं, सो जरै नहीं कहि नाश होवै नहीं, काहेतें ? सामान्य चेतन तिसका विरोधी नहीं है ।
जब विक्षेप - रहित शान्त अन्तःकरण होवै है तब एकाग्र अन्तरमुख वृत्ति होवै है, तिस वृत्ति का स्वरूप ही मानौं पानी है । ता पानी में एक कहिये जातीय विजातीय औ स्वगत भेदरहित पुरुष जो सर्व शरीरनरूप पुरिन में रहै है, औ अस्ति भांति प्रियरूप है, ऐसो ब्रह्मस्वरूप प्रगट्यौ । जो पूर्व अज्ञानकृत आवरण तेन ढक्यो थो सो सद्गुणी औ सत्शास्त्र के अनुग्रह ते आविर्भाव कूं पायो अपरोक्षानुभाव को विषय भयो । उक्त परब्रह्म जो पुरुष है ताकूं ही इहां निगुण कहै है, काहे तेन कि आप स्वतः जानने वाला है औ ज्ञानरूप है ताकूं गुरु की अपेक्षा बनै नहीं । अथवा जो सत्वादिक तीन गुणन तें वा रुपादिक चौबीस गुणनते रहित है तातें निगुणा(निर्गुण) है । ता(निर्गुणरूप) निगुरा की कैसी जात कहैं ? कोई भी जात कही जावै नहीं । काहे तैं - अनेकन के मांही जो एक धर्म रहे है सो जाति कहिये है जैसे सर्व ब्राह्मणन के शरीरन में ब्राह्मणत्व जाति है । औ जैसे सर्व घटन में एक घटत्व जाति है - तिनकूं ब्राह्मणपना औ घटपना कहै है । सोही ब्राह्मणादिक मांही जाति है । ताके सजातीय विजातीय औ स्वगत ऐसे तीन भेद हैं । अथवा जैसे सत्वादिक तीन गुणन की व रुपादिक चौबीस गुणन की गुणत्वजाति है, तैसे परब्रह्म की कोई भी जाति नहीं है । जहाँ जाति है वहाँ द्वैतता सिद्ध होवे है । “ब्रह्म तौ अद्वैत है” ऐसे श्रुति कहै है यातें ब्रह्म की कोई जाति कही जावै नहीं । तातें तिसकी जाति कहैं ?
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि जो मुमुक्षु पुरुष नित्य कहिये निरन्तर दीर्घकाल पर्यन्त । पराई कहिये सर्वतें पर श्रेष्ठ ब्रह्मस्वरूप की तात करै, कहिये श्रवणादि अभ्यास द्वारा तत्पर होय के चिन्ता कूं करै । अथवा अपने स्वरूप तेन अन्य समष्टि व्यष्टि रूप स्थूल सूक्ष्म औ कारण प्रपच्च की सदा असत जड़ दुःखादिरूप चिंतन करै । सोही पुरुष ब्रह्म औ आत्मा की एकता के निश्चय(ज्ञान) रूप अर्थ कूं लहै । अथवा जन्म मरणादि बन्ध की निवृत्तिरूप औ परमानन्द की प्राप्तिरूप अर्थ(मोक्ष) कूं लहै कहिये प्राप्त होवै है ॥१॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“रजनी मैं दीसै दिवस, दिन मैं दीसै राति ।
सुन्दर दीपक जलि गयौ रही बिचारी बाति” ॥१७॥
तथा - “पर निंदा निश दिन करै, सुंदर मुक्ति ही जाइ” ॥२४॥
*= श्रीदादूवाणी =*
तहँ अनहद बाजै अदभुत खेल,
दीपक जरै बाति बिन तेल ॥ पद. ४०५
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*रजनी मांहिं दिवस हम देख्यौ,*
*दिवस मांहिं हम देषी राति ।*
*तेल भर्यो संपूरन तामैं,*
*दीपक जरै जरै नहिं बाति ॥*
*पुरुष एक पानी मांहिं प्रगट्यौ,*
*ता निगुरा की कैसी जाति ।*
*सुन्दर सोई लहै अर्थ कौं,*
*जो नित करै पराई ताति ॥११॥*
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*= ह० लि० १ टीका =*
रजनी = निवृत्ति(अवस्था) । दिवस = ब्रह्मनिष्ठा । दिवस और राति = प्रवृत्ति और अज्ञान । तेल = स्नेह(ब्रह्मानन्द) । दीपक जरै = ज्ञान प्रकाशमान होवै । बाति = ब्रह्मानन्दवृत्ति । पुरुष = परब्रह्म । पानी = प्रेम । निगुरा = ब्रह्म । पराई = जगत मिथ्या की । ताति = निंदा ॥११॥
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*= ह० लि० २ री टीका =*
रजनी नाम निवृत्ति तामैं दिवस नाम ब्रह्मानिष्ठा नाम प्रकाशमान गया देख्यो । दिवस नाम जो प्रवृत्ति धर्म तामें अज्ञानरूपी रात्रि देखी अर्थात् जहाँ प्रवृत्ति होय तहां अज्ञान ही होय ।
तेल नाम स्नेह(अर्थात्) अत्यन्त सचिक्कण जो फेर छूटै नहीं एसो ब्रह्मानन्द रस पूरण जामैं एसो ज्ञानरूप दीपक प्रकाशमान है तामैं धाता ध्यानादिरूपा वृत्ति नहीं प्रकाशै है ध्येयाकार अखंड ज्ञान प्रकाशमान है । यद्वा जामैं स्नेहरूपी तेल परिपूर्ण ऐसी जो प्राणरूपी दीपक जरै है शरीर मैं प्रकाशरूप बणि रह्यौ है सो परिणामरूप प्रकाशमान है । अरु बाती जो ब्रह्माकार वृत्ति सो एकरस प्रकासै है, नहिं जरै नाम नहीं खंडन होय है ।
पुरुष एक परमेश्वर पाठांतर निगुना नाम त्रिगुनातीत परमात्मा की कैसी जाति । न कोई जाति है । अरु सर्व जातिरूप वो ही है ।
या का अर्थ कों सो(पुरुष) लहै जो पराई नाम आत्मचेतन सों । भिन्न देहादि संसार ताकी ताति नाम नित्य निन्दा करै । क्यूंकरि करै जगत् मिथ्या है यों करै ॥११॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
अज्ञानकाल में परब्रह्म ही मानों रात्रि है । काहेतें ? जो अज्ञानी होवै है सो कदे भी अपने कूं ब्रह्मरूप मानैं नहीं, किन्तु ब्रह्म तैं भिन्न मानै है । औ जो कोई कहै कि “तूं आत्मा ब्रह्मरूप है” तो सुनि के ताकूं बड़ा भय होवे है औ कहै कि - “मैं तो कर्त्ता-भोक्ता, सुखी - दुखी, पाप - पुन्यवान जीव हूँ औ इश्वर का दास हूँ, मैं आत्मा हूँ यह कैसे कह्या जावै ?” यही मानों तिस रात्रि में भय है । औ जो “मैं आत्मा ब्रह्मरूप होवौं तो सो अपना स्वरूप मेरे कूं भासना चाहिये सो तो भासै नहीं । तातैं मैं आत्मा ब्रह्म नहीं हूँ ।” यही मानों ब्रह्म रात्रि आवरण है । ऐसी परब्रह्मरजनी मांहि ज्ञानकाल में हम दिवस देख्यो । काहेतें कि ज्ञानी अपने कूं ब्रह्मरूप मानै है, और अहं ‘ब्रह्मास्मि’ कहेतें कछु डरै नहीं, औ अपना शुद्ध सच्चिदानस्वरूप आत्मस्वरूप जैसा है तैसा देखै हैं । ऐसे तिस रात्रि कूं हम दिवस देख्यो है कहिये जान्यों है । ज्ञानी कूं परब्रह्म जैसा है तैसा भासै है, तामें पूर्वोक्त भय अथवा आवरण कछू नहीं होवै है । तातैं सो परब्रह्म ही मानों दिवस है । ता मांहि अज्ञांनकाल में जगतरूप कार्य्य सहित अविद्या प्रतीत होती थी, तैसे ही ज्ञानकाल में प्रतीत होवै है । परन्तु इतना भेद है - अज्ञानकाल में सत्यतापूर्वक प्रतीत होती थी, तैसे अज्ञानकाल में प्रतीत होवै नहीं । किन्तु दग्धपट की न्याई बाधितानुवृत्ति करि प्रतीत होवै है । ऐसे हम राति देखी है ।
देश काल और वस्तु के परिच्छेद तैं रहित जो ब्रह्म है सो सम्पूर्ण व्यापक है, यही मानों सम्पूर्ण तेल भर्यो है तामें माया औ अविद्या उपहित जो साक्षी चेतन है सोही मानौं दीपक है सो जरै है कहिये तिस माया और अविद्या के कार्य्यरूप कज्जल कूं प्रकाशै है । वे माया औ अविद्यास्वरूप से जड़ और परप्रकाश होने से सोही मानों बात कहिये बत्ती हैं, सो जरै नहीं कहि नाश होवै नहीं, काहेतें ? सामान्य चेतन तिसका विरोधी नहीं है ।
जब विक्षेप - रहित शान्त अन्तःकरण होवै है तब एकाग्र अन्तरमुख वृत्ति होवै है, तिस वृत्ति का स्वरूप ही मानौं पानी है । ता पानी में एक कहिये जातीय विजातीय औ स्वगत भेदरहित पुरुष जो सर्व शरीरनरूप पुरिन में रहै है, औ अस्ति भांति प्रियरूप है, ऐसो ब्रह्मस्वरूप प्रगट्यौ । जो पूर्व अज्ञानकृत आवरण तेन ढक्यो थो सो सद्गुणी औ सत्शास्त्र के अनुग्रह ते आविर्भाव कूं पायो अपरोक्षानुभाव को विषय भयो । उक्त परब्रह्म जो पुरुष है ताकूं ही इहां निगुण कहै है, काहे तेन कि आप स्वतः जानने वाला है औ ज्ञानरूप है ताकूं गुरु की अपेक्षा बनै नहीं । अथवा जो सत्वादिक तीन गुणन तें वा रुपादिक चौबीस गुणनते रहित है तातें निगुणा(निर्गुण) है । ता(निर्गुणरूप) निगुरा की कैसी जात कहैं ? कोई भी जात कही जावै नहीं । काहे तैं - अनेकन के मांही जो एक धर्म रहे है सो जाति कहिये है जैसे सर्व ब्राह्मणन के शरीरन में ब्राह्मणत्व जाति है । औ जैसे सर्व घटन में एक घटत्व जाति है - तिनकूं ब्राह्मणपना औ घटपना कहै है । सोही ब्राह्मणादिक मांही जाति है । ताके सजातीय विजातीय औ स्वगत ऐसे तीन भेद हैं । अथवा जैसे सत्वादिक तीन गुणन की व रुपादिक चौबीस गुणन की गुणत्वजाति है, तैसे परब्रह्म की कोई भी जाति नहीं है । जहाँ जाति है वहाँ द्वैतता सिद्ध होवे है । “ब्रह्म तौ अद्वैत है” ऐसे श्रुति कहै है यातें ब्रह्म की कोई जाति कही जावै नहीं । तातें तिसकी जाति कहैं ?
*सुन्दरदासजी कहैं है* कि जो मुमुक्षु पुरुष नित्य कहिये निरन्तर दीर्घकाल पर्यन्त । पराई कहिये सर्वतें पर श्रेष्ठ ब्रह्मस्वरूप की तात करै, कहिये श्रवणादि अभ्यास द्वारा तत्पर होय के चिन्ता कूं करै । अथवा अपने स्वरूप तेन अन्य समष्टि व्यष्टि रूप स्थूल सूक्ष्म औ कारण प्रपच्च की सदा असत जड़ दुःखादिरूप चिंतन करै । सोही पुरुष ब्रह्म औ आत्मा की एकता के निश्चय(ज्ञान) रूप अर्थ कूं लहै । अथवा जन्म मरणादि बन्ध की निवृत्तिरूप औ परमानन्द की प्राप्तिरूप अर्थ(मोक्ष) कूं लहै कहिये प्राप्त होवै है ॥१॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“रजनी मैं दीसै दिवस, दिन मैं दीसै राति ।
सुन्दर दीपक जलि गयौ रही बिचारी बाति” ॥१७॥
तथा - “पर निंदा निश दिन करै, सुंदर मुक्ति ही जाइ” ॥२४॥
*= श्रीदादूवाणी =*
तहँ अनहद बाजै अदभुत खेल,
दीपक जरै बाति बिन तेल ॥ पद. ४०५
(क्रमशः)
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