गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

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卐 सत्यराम सा 卐
कछू न कीजे कामना, सगुण निर्गुण होहि ।
पलट जीव तैं ब्रह्म गति, सब मिलि मानैं मोहि ॥ 
घट अजरावर ह्वै रहै, बन्धन नांही कोइ ।
मुक्ता चौरासी मिटै, दादू संशय सोइ ॥ 
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साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
अमृत वस्तु जानै नहीं, मगन भया सब लोय। 
कहहिं कबीर कामो नहीं, जीवहि मरन न होय ॥
अमृत वस्तु, अर्थात अपने चेतन आत्मस्वरूप को तो जानते नहीं और सब लोग विषय-कामनाओं में डूब रहे हैं। सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि यदि कामना न हो, अर्थात पूर्णतः कामना-रहित हो तो जीव का मरण न हो।
अभिप्राय यह है कि मन-कामना के कारण ही जीव का मरण एवं पुनर्जन्म होता है और कामना-रहित होने पर जब वह अपने अविनाशी आत्मस्वरूप को जान लेता है, उसमें स्थित हो जाता है तो वह अमृत(वस्तु) ही है। उसको जानना एवं प्राप्त होना ही अमरत्व-स्थिति की प्राप्ति है, जिसके पश्चात मरण एवं पुनर्जन्म की कोई बात ही नहीं रह जाती।
विशेष -- यम का स्पष्ट अर्थ है --- मृत्यु, काल और कोई भी बंधन दुखप्रद होने से यमरूप ही है। 
मन-कामना से जीव सांसारिक बंधनों में बंधता है और उसका जन्म-मरण होता है, इसीलिए मन-कामना को यमरूप कहा गया है। आशा-तृष्णा, वासनाएं एवं मन की समस्त कल्पनाएं कालरूप हैं, इनसे जीव विभिन्न दुख-बंधनों में पड़ता है।
जो भी बंधन है और जिस भी विषय-वस्तु एवं कारण से जीव पतित होता है, वह सब यमरूप है। 
प्राणी-पदार्थों का समयानुसार परिवर्तित होना, उनके रूप-आकार में परिवर्तन होने की प्रक्रिया चलते रहना भी कालरूप है। सब जड़ तत्व परिवर्तनशीलता के बंधन में पड़े हैं, वह उनके लिए कालरूप है। इस प्रकार यम या काल सब ओर व्याप्त है। किसी न किसी रूप में सब काल के बंधन में पड़े हैं।
केवल एक अमृत वस्तु है --- चेतन आत्मा, अतएव उसी को जानना चाहिए।
संत कबीरदास !
सौजन्य -- बीजक रमैनी !

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