गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

= ७२ =

💐

卐 सत्यराम सा 卐💐मैं मेरे में हेरा, मध्य मांहिं पीव नेरा ॥ टेक ॥
जहाँ अगम अनूप अवासा, तहँ महापुरुष का वासा ।
तहँ जानेगा जन कोई, हरि मांहि समाना सोई ॥ १ ॥
अखंड ज्योति जहँ जागै, तहँ राम नाम ल्यौ लागै ।
तहँ राम रहै भरपूरा, हरि संग रहै नहिं दूरा ॥ २ ॥
तिरवेणी तट तीरा, तहँ अमर अमोलक हीरा ।
उस हीरे सौं मन लागा, तब भरम गया भय भागा ॥ ३ ॥
दादू देख हरि पावा, हरि सहजैं संग लखावा ।
पूरण परम निधाना, निज निरखत हौं भगवाना ॥ ४ ॥
===================================
साभार ~ नरसिँह जायसवाल ~
सुन्न सहज मन सुमिरते, प्रगट भई एक ज्योत। 
ताहि पुरुष की मैं बलिहारी, ... निरालम्ब जो होत ॥
सहज मन से स्मरण करते हुए शून्य-स्थिति में एक ज्योति प्रकट हुई। सद्गुरु कहते हैं कि मैं उस पुरुष की बलिहारी हूं, जो निराधार हो जाता है।तातपर्य यह है कि राग-द्वेष एवं कामादि विकारों से रहित सहज मन से सत्यात्मा का स्मरण करते हुए जब समस्त संकल्प-विचार खो जाते हैं, मन पूर्णतः शून्यता की स्थिति में हो जाता है, तब हृदय में एक ज्योति प्रकट होती है। उसे आत्मज्योति, ब्रह्मज्योति या ज्ञानज्योति कहते हैं।
उस परम ज्योति के प्राकट्य से सारे अज्ञानान्धकार का विनाश और निर्मल आत्मज्ञान का प्रकाश होता है। सद्गुरु कहते हैं कि मैं उस पुरुष की प्रशंसा करता हूं जो सब रूप-आकार आदि से निराधार हो जाता है।
संत कबीरदास !
सौजन्य -- बीजक रमैनी !

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें