सोमवार, 21 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५३ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५३ दिन ३५ =*
*= जीव, ब्रह्म संबन्धी विचार व ब्रह्म प्राप्ति का साधन =*
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दादू जल में गगन, 
गगन में जल है, पुनि वह गगन निरालं ।
ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारं ॥
जैसे जल में आकाश रहता है और आकाश में जल रहता है फिर भी आकाश जल से अलग ही है, वैसे ही जीवत्व भाव संपन्न शरीरों में साक्षी रूप में बहम रहता है और ब्रह्म में शरीरादि संसार विवर्त्त`रूप से रहता है फिर भी ब्रह्म१ विवर्त्त्त रूप संसार से भिन्न ही रहता है अर्थात् विवर्त्त के गुण दोष अधिष्ठान ब्रह्म में नहीं आते हैं । उक्त प्रकार ही जीव ब्रह्म रहते हैं । जीव ब्रह्म का भेद, जीव ब्रह्म के स्वरूप विचार द्वारा ऐसा ही समझ में आता है अर्थात् कहने मात्र का ही भेद है, वास्तव में दोनों एक ही हैं ।
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ज्यूं दर्पण में मुख देखिये, पाणी में प्रतिबिम्ब ।
ऐसे आतम राम है, दादू सब ही संग ॥
जैसे प्रत्येक दर्पण और जलाशय में उनकी शुद्ध और स्थिर अवस्था में प्रतिबिम्ब देखा जाता है, वैसे ही आत्मस्वरूप राम का प्रतिबिम्ब अन्तःकरण की शुद्ध और स्थिरावस्था में देखा जाता है । प्रतिबिम्ब और बिम्ब का जैसे भेद नहीं होता है, वैसे ही आत्मा और राम का भी भेद नहीं होता है, दोनों एक जैसे ही होते हैं । जैसे दर्पण और जलाशय भिन्न होते हैं वैसे शरीर ही भिन्न होते हैं । प्रतिबिम्बवाद में प्रतिबिम्ब बिम्ब कस स्वरूप ही होता है । उक्त प्रकार से आत्मा और राम सदा संग ही अर्थात् दोनों एक ही हैं, नाम ही दो हैं, स्वरूप एक ही है ।
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मित्त तुम्हारा तुम कनैं, तुम ही लेहु पिछान ।
दादू दूर न देखिये, प्रतिबिम्ब ज्यूं जान ॥
तुम्हारा सच्चा मित्र परमात्मा तुम्हारा स्वरूप होने से तुम्हारे पास ही है । तुम ब्रह्मज्ञान द्वारा उसे पहचान सकते हो । ब्रह्मज्ञान होने पर वह दूर नहीं भासता है । जैसे प्रतिबिम्ब बिम्ब से दूर नहीं होता है, बिम्ब का स्वरूप ही होता है, वैसे ही आत्मा परमात्मा से दूर नहीं होता है, यह सत्य ही जानो । उक्त उपदेश सुनकर अकबर बादशाह ने कहा - स्वामिन् ! आपने कहा था जीव ब्रह्म की सेवा करता है, तब ब्रह्म के बराबर हो जाता है, सो कृपा करके बताओ वह उत्तम सेवा कौन सी है ?
(क्रमशः)

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