सोमवार, 21 दिसंबर 2015

(२२. विपर्यय शब्द को अंग=८)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*हंस चढ्यौ ब्रह्मा के ऊपर,*
*गरुड चढ्यौ पुनि हरि की पीठ ।* 
*बैल चढ्यौ है शिव के ऊपर,*
*सौ हम देष्यौ अपनी दीठि ॥* 
*देव चढ्यौ पाती के ऊपर,*
*जरख चढ्यौ डाइनि परि नीठि ।* 
*सुन्दर एक अचम्भा हूवा,*
*पानी माहैं जरै अंगीठि ॥८॥*

*= ह० लि० १ टीका =* 
हंस = जीव । ब्रह्मा = रजोगुण । गरुड = ज्ञान । हरि = सतोगुण । बैल =शरीर । शिव = तमोगुण । देव = जीव । पाती = प्रकृति । जरख = मन । डाइन = मनसा । पानी = काय । अंगीठ = ब्रह्मअग्नि ॥८॥ 
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*= ह० लि० २ टीका =* 
हंस नाम जीव, सो ब्रह्मा नाम ब्र्ह्मारूप रजोगुण, ता परि चढ्यौ नाम गुरु संत शास्र विवेक सों वाकों जीत्यो । गुरुड नाम अति बेग बलवंत सर्व दुःख कर्म क्षयकारी, सो हरि नाम जो विष्णु सम्बन्धी सतोगुण ताकों जीत्यो । 
बैल जो अज्ञता जडतारूप वपु नाम शरीर तामैं पुरुषार्थ करिकै शिवरूपी जो तमोगुण ता परि चढ्यो नाम जीत्यो । सो इह विपर्ययरूप व्यवहार सिद्धान्त हम देष्यो विवेक दृष्टि सों । 
देव नाम सदा देदीप्यमान चेतन जीव, सो पाती नाम अंतःकरण की प्रकृति ता परि चढ्यौ नाम सर्व प्रकृति जीती । जरख पर डायन चढै यह रीति है, परन्तु इहां विपरीत है  -  जरख ओ संकल्पात्मकरूप मन सो डायन नाम अत्यन्त पदार्थों की लालसा संकल्पों की कारणरूप मनसा ताकूं जीती । इन सर्व साधना को फल सिद्धान्त कहै हैं । 
सुन्दरदासजी कहै हैं एक बड़ा अचंभा देष्या । सो कहां ? पानी नाम जल बूंद की काय ता मैं अंगीठी नाम सर्वदुःख कर्म विकार वांसना को दाहक ब्रह्मानन्द स्वरूप प्राप्तिरूप साक्षात् ज्ञानाग्नि प्रकाश हूवो अर्थात् ब्रह्मानन्द स्वरूप प्राप्त हूवा ॥८॥

*= पीताम्बरी टीका =*  
सात्विकी वृत्ति सहित मनरूप हंस सो रजोगुण ब्रह्मा के ऊपर चढ्यो । कहिये ताकूं जीत लियो । पुनि निर्गुण ब्रह्म के अभ्यास युक्त मनरूप गरुड सो सतोगुणरूप हरि(विष्णु) की पीठ पर चढ्यौ कहिये तिसकूं जीति लियो अर्थात् निर्गुण स्थिति कूं प्राप्त भयो । 
रजोगुण की वृत्ति सहित मनरूप बैल तमोगुणरूप शिव पर चढ्यौ है कहिये ताकूं जीत लियो है । सो हमने अपनी दीठ, दृष्टि करि, देष्यो । सो ऐसे  -  रजोगुण की वृद्धि तें तमोगुण का पराजय होवै है । इत्यादिक अभ्यास काल में हमने अनुभव किया है । 
स्वप्रकाश आत्मचैन्यरूप देव, देहादिक अनात्म संघातरूप पाती- तुलसी पत्रादिक(सेवा की सौंज) के ऊपर चढ्यौ । याका अर्थ यह है - जैसे पूजनकाल में पत्रादि सामग्री तें देव की मूर्ति का आच्छादन होइ जावै है तातैं सो देखन में नहीं आवै है, पूजन समाप्ति पीछे जब पत्रादि सामग्री कों उतारि के नीचे पृथ्वी पर डाल देवैं तब स्पष्ट देखिये हैं । तैसे अज्ञानकाल में देहादिक अनात्मसंघात के अभिमान ते आत्मा कूं आवरण होवे हैं, तातैं सो अप्रसिद्ध रहै है । ओ ज्ञानकाल में जब आवरण निवृत्त होई जावै है, तब स्वप्रकाश आत्मा का स्व-स्वरूप करि आविर्भाव होवै है । विवेकरूप मनरूप जरख(एक जात का जंगली जानवर होवै है जाकी पीठ पर चढि के डाकिनी सवारी करै है सो) विषयाकार वृत्ति रूप डायनि कहिये डाकिनी के पर नीठ कहिये अच्छी तरह से चढ्यौ, कहिये ज्ञान की सहायता से प्रवाल होय के वृत्ति कूं जीत लीनी । 
सुन्दरदासजी कहै हैं कि एक अचंभा, आस्चर्य हूवा । सो कहै है - दैवी सम्पति के बलतें शीतल अंतःकरणरूप पानी मांहि अंगीठी, कहिये इस लोक के और परलोक के शुभाशुभ कर्म के फल की दाह औ ब्रह्मानंद की प्रकाशक, ब्रह्मज्ञानरूप अग्नि जरै है कहिये होवै है ॥८॥ 
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*  
“ब्रह्मा ऊपरी हंस चढ़ि, कियौ गगन दिसि गौंन । 
गरुढ़ चढ्यौ हरि पीठ पर, सुन्दर मानैं कौंन ॥१५॥ 
बृषभ भयौ असवार पुनि, सुंदर शिव पर आइ । 
डाइण ऊपरी जरख चढ़ि भली दई” ॥१६॥ 
(क्रमशः)

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