गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४६ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४६ दिन २८ =*
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*अब आगे उत्तमा(परा) भक्ति कह रहे हैं -*
अकबर ! अब तुम मन लगाकर पराभक्ति संबन्धी प्रवचन सुनो । पराभक्ति सब प्रकार की भक्तियों से श्रेष्ठ मानी जाती है । इसी को अभेद भक्ति तथा अहंग्रह ध्यान भी कहते हैं । अन्तराय रहित निरंतर प्रभु के समीप में रहते हुये निर्निमेष दृष्टि प्रभु में लगाये रहे और और दासत्व होने पर भी दासपना नहीं रहे । भगवान् में मिलकर भी भक्ति रस का पान करता रहे । भगवान् और भक्त में वारि बर्फ के सामान कहने मात्र का ही भेद रहे । इस विलक्षण स्थिति को ही पराभक्ति नाम से कहा जाता है ।
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फिर बोले-
"टगा टगी लागी रहे, ब्रह्म बराबर होय ।
परकट खेले पीव से, दादू विरला कोय ॥"
पराभक्ति में निर्निमेष दृष्टि परमात्मा में लगी रहती है । ब्रह्म को जानकार ब्रह्म के सामान ही हो जाता है । इस प्रकार परमात्मा से एक होकर प्रकट रूप में ब्रह्मानन्द प्राप्ति रूप खेल खेलने वाला कोई विरला ही ज्ञानी संत होता है । फिर पराभक्ति की स्थिति को प्रकट करने के लिये यह पद सुनाया -
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"राम तू मोरा हौं तोरा, पाइन परत निहोरा ॥टेक॥
एकहि संगैं वासा, तुम ठाकुर हम दासा ॥१॥
तन मन तुम को देबा, तेज पुंज हम लेबा ॥२॥
रस मांहीं रस होइबा, ज्योति स्वरूप हि जोइबा ॥३॥
ब्रह्म जीव का मेला, दादू नूर अकेला ॥४॥"
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हे राम ! आप मेरे हैं और मैं आपका हूँ । मैं आपके चरणों में पड़कर प्रार्थना कर रहा हूँ - आप स्वामी हैं और मैं आपका दास हूँ । अतः हम दोनों एक होकर के साथ ही निवास करैं । मैं अपना तन-मन आपको दूं और आप का तेज पुंज लूं । जैसे रस में रस एक हो जाता है, वैसे ही आपके स्वरूप में आत्मा को एक करके ज्योति स्वरूप को ही देखूं । ब्रह्म और जीव का मिलन हो जाय और मैं एक मात्र अद्वैत रूप ही होकर रहूँ, एसी कृपा अवश्य कीजिये ।
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अब परिचय होने पर पराभक्ति करने की प्रेरणा कर रहे हैं -
अखिल भाव अखिल भक्ति, अखिल नाम देवा ।
अखिल प्रेम अखिल प्रीति, अखिल सुरति सेवा ॥टेक॥
अखिल अंग अखिल संग, अखिल रंग रामा ।
अखिलारत अखिलामत, अखिला निज नामा ॥१॥
अखिल ज्ञान अखिल ध्यान, अखिल आननद कीजे ।
अखिला लै अखिला में, अखिला रस पीजे ॥२॥
अखिल मगन अखिल मुदित, अखिल गलित सांई ।
अखिल दर्श अखिल परस, दादू तुम मांहीं ॥३॥
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परिचित परब्रह्म देव में सब प्रकार से श्रद्धा भक्ति करनी चाहिये । सर्व समय नाम चिन्तन करना चाहिये । वे सर्व प्रकार से प्रेम पात्र होने योग्य हैं । उनसे सर्व प्रकार प्रीति करना चाहिये और उन सर्व रूप की वृत्ति द्वारा सेवा करते रहना चाहिये । वे राम सब रंगों में हैं, सब के साथ हैं, और सब शरीरों में विद्यमान हैं । सब अवस्थाओं में उनसे प्रेम करना चाहिये । सब प्रकार उनके मत में रहना चाहिये और सब प्रकार ही सत्यराम आदि निज नामों का चिन्तन करना चाहिये । सब प्रकार से उसी का ध्यान करते हुये, ज्ञान द्वारा सब में उसी को देखते हुये, सर्व प्रकार से आनन्द करना चाहिये । सर्व प्रकार प्रभु के प्रेम में गलित रहना चाहिये । सर्व भांति प्रसन्न रहते हुये उस सर्व रूप में ही निमग्न रहना चाहिये । वह सर्व में देखने योग्य, सर्व में स्पर्श करने योग्य परब्रह्म तुम्हारे भीतर ही स्थित है ।
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अब आगे दो पदों द्वारा परिचय पूर्वक पराभक्ति दिखा रहे हैं-
योगी जान जान जन जीवे, बिन ही मनसा मनहि विचारे,
बिन रसना रस पीवे ॥टेक॥
बिन ही लोचन निरख नैन बिन, श्रवण रहित सुन सोई ।
ऐसे आतम रहै एक रस तो दूसर नाम न होई ॥१॥
बिन ही मारग चले चरण बिन, निश्चल बैठा जाई ।
बिन ही काया मिले परस्पर, ज्यों जल जल हि समाई ॥२॥
बिन ही ठाहर आसण पूरे, बिन कर बैन बजावे ।
बिन ही पाऊं नाचे निशि दिन, बिन जिह्वा गुण गावे ॥३॥
सब गुण रहिता सकल बियापी, बिन इन्द्रिय रस भोगी ।
दादू ऐसा गुरु हमारा, आप निरंजन योगी ॥४॥
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योगी जन साधन द्वारा मायिक प्रपंच को मिथ्या और ब्रह्म को सत्य स्वरूप जानकार जीवन्मुक्त हुये रहते हैं । वे सांसारिक भावना युक्त मन बुद्धि से रहित होकर स्वस्वरूप का विचार करते हैं । रसना बिना ही स्वरूपानन्द रस का पान करते रहते हैं । बाह्य नेत्र तथा ज्ञान नेत्रों के बिना ही स्वस्वरूप स्थिति देखते हैं । बाह्य श्रवणों बिना ही उस आत्म स्वरूप ब्रह्म का अभेद रूप श्रवण करते हैं । यदि उक्त प्रकार आत्मा ब्रह्म में अद्वैतरूप से निरन्तर स्थित रहे तो द्वैत का नाम भी ज्ञात नहीं होता है जो बाह्य मार्ग और चरणों के बिना ही साधन द्वारा चल कर निश्चल ब्रह्म के पास जा बैठा है और बिना ही शरीर के आत्मा तथा ब्रह्म परस्पर मिलकर जैसे जल में जल समा जाता है, वैसे ही आत्मा ब्रह्म में समा गया है । सांसारिक स्थान बिना ही परब्रह्म में पूर्ण अभेद रूप से आसन लगाया है और बाह्य हाथों के बिना ही परब्रह्म अनाहत ध्वनि रूप आनन्द की बंशी बजाता है । बाह्य पैरों के बिना ही भावना द्वारा रात्रि दिन नृत्य करता है । बाह्य जिह्वा बिना ही ध्यानावस्था में प्रभु के गुण गान करता है । स्वस्वरूप को सब गुणों से रहित और सब में व्यापक समझते हुये बाह्य इन्द्रियों के बिना ही ब्रह्मानन्द रूप महारस का उपभोग करता है, ऐसा योगी स्वयं निरंजन ब्रह्म रूप और हमारा गुरु है ।
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द्वितीय पद -
इहै परम गुरु योगं, अभी महा रस भोगं ॥टेक॥
मन पवना स्थिर साधं, अविगत नाथ अराधं, तहँ शब्द अनाहद नादं ॥१॥
पंच सखी परमोधं, अगम ज्ञान गुरु बोधं, तहँ नाथ निरंजन शोधं ॥२॥
सद्गुरु माँहिं बतावा, निराधार घरछावा, तहँ ज्योति स्वरूपी पावा ॥३॥
सहजैं सदा प्रकाशं, पूरण ब्रह्म विलासं, तहँ सेवक दादू दासं ॥४॥
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इस शरीर में ही परमगुरु का बताया हुआ योग साधन तथा ज्ञानामृत रूप महारस का उपभोग होता है । जब साधन द्वारा मन प्राण को स्थिर करके मन इन्द्रियों के अविषय परमात्मा की उपासना की जाती है, तब अनाहत नाद रूप शब्द सुनने में आते हैं । पंच ज्ञानेन्द्रिय रूप सखियें विषयासक्ति रूप निद्रा से जागती हैं । गुरु उपदेश से आत्म स्वरूप ब्रह्म का परोक्ष ज्ञान होता है, फिर साधक हृदय में निदिध्यासन द्वारा निरंजन प्रभु की खोज करके उसे अभेद रूप से प्राप्त करता है । इस प्रकार हमारे सद्गुरु वृद्ध(ब्रह्म) भगवान् ने शरीर के भीतर ही बताया है और हमारा मन भी उस निराधार ब्रह्मरूप घर पर ही स्थित हुआ तब वहां ही ज्योति स्वरूप ब्रह्म हमें प्राप्त हुआ है और अनायास ही सदा प्रकाश स्वरूप पूर्ण ब्रह्म के साक्षात्कार का आनन्द प्राप्त हो रहा है । हम वहां वृत्ति द्वारा उनके सेवक रूप से रहते हैं । इस पराभक्ति के मुख्य भक्त वसिष्ठादि और अर्वाचीन शंकराचार्य आदि हैं ।
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इतना उपदेश करके सत्संग का समय समाप्त हो जाने से दादूजी मौन हो गये । फिर अकबर आदि सब श्रोताओं ने दादूजी को धन्यवाद देते हुये उठके प्रणाम किया और दादूजी से आज्ञा लेकर सब अपने-अपने भवनों में चले गये । इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन २८ विन्दु ४६ समाप्तः ।
(क्रमशः)

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