गुरुवार, 3 दिसंबर 2015

(३४. आश्चर्य को अंग=११)


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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
*एक ही ब्रह्म रह्यौ भरपूर तौ,* 
*दूसरौ कौंन बतावानहारौ ।* 
*जो कोउ जीव करै जु प्रमांन,* 
*तौ तीव कहा कछु ब्रह्म तैं न्यारौ ॥* 
*जो कहै जीव भयौ जगदीश तैं,* 
*तौ रवि मांहि कहं कौ अंधारौ ।* 
*सुंदर मौंन गही यह जांनि कै,* 
*कौंन हु भांति न व्है निरधारौ ॥११॥* 
यदि वह(ब्रह्म) अकेला ही सर्वत्र व्यापक है तो उसके विषय में दूसरा कौन बताने वाला मिलेगा । 
यदि कोई उस विषय में जीव को प्रमाण मानता है तो यह बात भी अग्राह्य है; क्योंकि जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं है । 
यदि कोई कहे कि जीव की रचना ईश्वर ने की है ? तो हम पूछना चाहेगें कि यह सूर्य में अन्धकार कहाँ से आ गया । 
अतः *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - हमने तो इस विषय में मौन ही ग्रहण कर लिया है; क्योंकि हम से इस विषय में कोई निश्चय नहीं हो पा रहा है ॥११॥ 
(क्रमशः)

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