गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५७ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*विन्दु ५७ दिन ३९*
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उक्त उपदेश सुनकर अकबर ने पुनः पूछा - स्वामिन् ! नख शिख स्मरण किसे कहते हैं यह भी आप बताने की कृपा अवश्य करें, आपसे भिन्न व्यक्ति यह विषय यथार्थरूप से समझा नहीं सकता । आप तो अनुभवी सन्त हैं, आपको तो सभी पारमार्थिक विषय करामलवत ज्ञात हैं, आपसे कुछ भी छिपा नहीं है ।
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*= नख शिख स्मरण =*
अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर परमज्ञानी भक्त दादूजी बोले -
कोमल कमल तहँ पैसिकर, जहां न देखे कोय ।
मन थिर सुमिरण कीजिये, तब दादू दर्शन होय ॥
अन्तर्मुख होकर सहज दया द्वारा कोमल हुये अष्टदल-हृदय कमल में मन को स्थिर करके स्मरण करो । हृदय-स्मरण को कोई देख नहीं सकता, गुप्तरूप से होने के कारण वह विशेष माना जाता है । जब उक्त स्मरण-साधन परिपाकावस्था को प्राप्त होता है तब नकद शिख स्मरण होने लगता है फिर शीघ्र ही प्रभु का दर्शन भी हो जाता है ।
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फिर बोले -
नख शिख सब सुमिरण करे, ऐसा कहिये जाप ।
अंतर विकसे आतमा, तब दादू प्रकटे आप ॥
जब पैर के नख से मस्तक की शिखा पर्यन्त प्रत्येक रोम से स्मरण होने लगता है, तब ऐसा स्मरण ही परम जाप कहलाता है । इस परम जाप की सिद्धावस्था आते ही अन्तःकरणरूप आत्मा संशय विषयर्यादि दोषों से रहित होकर प्रफुल्लित होता है । उस प्रफुल्लित अन्तःकरण में अपने आप ही आत्मा और परमात्मा का अभेद ज्ञान प्रकट होकर ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है । उक्त प्रकार के नख शिख स्मरण से महान् लाभ होता है ।
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अंतरगत हरि हरि करे, तब मुख की हाजत१ नाँहिं ।
सहजैं ध्वनि लागी रहै, दादू मन हीं मांहिं ॥
जब साधक ह्रदय में निरन्तर हरि-हरि करता रहता है और मन में भी स्वाभाविक ध्वनि लगी रहती है तब उसे मुख से जाप करने की इच्छा१ भी नहीं होती है ।
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सहजैं सुमिरण होत है, रोम रोम रमि राम ।
चित्त चहूंट्या चित्त से, यों लीजे हरिनाम ॥
आन्तर स्मरण का अभ्यास दृढ़ हो जाने पर रोम रोम में रमे हुये राम का स्मरण स्वाभाविक ही होता रहता है और उक्त प्रकार के स्मरण से व्यष्टि चित्त सेसमष्टि चित्त से जुड़ जाता है, तब आत्मा परमात्मा में लीन हो जाता है । तुमको भी उक्त प्रकार ही स्मरण करना चाहिये फिर तुम्हारा भी नख शिख स्मरण होने लगेगा ।
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अकबर ने पूछा - आपको इस नख शिख स्मरण की पद्धति किसने बताई थी ? यह सुन कर परम दयालु दादूजी महाराज बोले -
दादू सुमरिण सहज का, दीन्हा आप अनन्त ।
अरस परस उस एक से, खेलैं सदा वसंत ॥
हमारे को नख शिख रूप सहज स्मरण का उपदेश अनन्तशक्ति, संपन्न स्वयं भगवान् ने ही वृद्ध ऋषि के रूप में प्रकट होकर अहमदाबाद के कांकरिया सरोवर पर दिया था । इस सहज स्मरणरूप साधन के प्रताप से ही हम उस अद्वैत ब्रह्म में एकमेक होकर सदा ही ब्रह्मानन्द का अनुभव रूप वसन्तोत्सव खेल खेलते रहते हैं ।
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दादू शब्द अनाहत हम सुन्या, नख शिख सकल शरीर ।
सब घट हरि हरि होत है, सहजैं ही मन थीर ॥
हमने सहज स्मरण के प्रताप से ही पैर के नख से मस्तक की शिखा तक कंठ तालु आदि के आघात बिना ही होने वाला "हरि-हरि" रूप अनाहत शब्द सुना है । अब वह संपूर्ण शरीर में प्रतिक्षण होता ही रहता है और उस पर हमारा मन भी स्वाभाविक ही स्थिर रहता है तथा अद्भुत आनन्द का अनुभव करता है ।
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सब घट मुख रसना करे, रटे राम का नाम ।
दादू पीवे राम रस, अगम अगोचर ठाम ॥
संपूर्ण शरीर के रोम कूपों को मुख और संपूर्ण रोमों को जिह्वा बनाकर राम नाम का जप करे और जप से होने वाले आनन्द-रस का पान करे तो मन से परे इन्द्रियातीत ब्रह्म-धाम को प्राप्त होने में कोई भी संशय नहीं रहता है ।
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दादू मन चित सुस्थिर कीजिये, तो नख शिख सुमिरण होय ।
श्रवण नेत्र मुख नासिका, पंचों पूरे सोय ॥
अन्य स्मरण और अन्य चिन्तन त्यागकर निरन्तर मन से तथा चित्त से एक ईश्वर का ही स्मरण-चिन्तन होना, मन, चित्त की स्थिरावस्था है । इसको संपादन करो, फिर अपने आप ही नख से शिखा पर्यन्त स्मरण होने लगेगा । जो नख शिख स्मरण करता है, वही अपनी श्रवण, नेत्र, जिह्वा, नासिका, त्वचा इन पांचो ज्ञानेन्द्रिय को पूर्णतया प्रभु परायण कर पाता है ।
(क्रमशः)

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