गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

पद. ४३३

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४३३. हित उपदेश । चौताल ~
मनसा मन शब्द सुरति, पाँचों थिर कीजे ।
एक अंग सदा संग, सहजैं रस पीजे ॥ टेक ॥ 
सकल रहित मूल गहित, आपा नहिं जानैं ।
अन्तर गति निर्मल रति, एकै मन मानैं ॥ १ ॥ 
हिरदै सुधि विमल बुधि, पूरण परकासै ।
रसना निज नाम निरख, अन्तर गति वासै ॥ २ ॥ 
आत्म मति पूरण गति, प्रेम भगति राता ।
मगन गलित अरस परस, दादू रस माता ॥ ३ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव हितकर उपदेश कर रहे हैं कि हे जिज्ञासु ! अपनी मनसा, मन, सुरति, पाँचों ज्ञान इन्द्रियाँ, इन सबको गुरु के उपदेश रूपी शब्द में स्थिर करके, सहजावस्था द्वारा सदा अद्वैत ब्रह्म स्वरूप के अभेद रूप संग में रहकर, जीव ब्रह्म की एकता रूप ज्ञानामृत का पान करिये । और अनात्म अहंकार को भूलकर सम्पूर्ण मायावी प्रपँच से रहित सबके मूल कारण ब्रह्म को उपास्य देव रूप से जो ग्रहण करते हैं तथा निर्मल प्रेम से वृत्ति अन्तर्मुख आत्मा में ही लगाये रहते हैं, उनके मन, इन्द्रियाँ अद्वैत ब्रह्म - चिन्तन में ही सन्तुष्ट रहते हैं । उन्हीं के शुद्ध हृदय में और शुद्ध बुद्धि में केवल पूर्ण ब्रह्म का प्रकाश प्रगट रहता है और जिह्वा के ऊपर सदैव गुरु उपदेश निवास करता है । उपरोक्त साधना द्वारा आत्म - स्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करके अन्तर्मुख वृत्ति से आत्मा में ही स्थिर रहते हैं । इस प्रकार आत्म - चिन्तन से पूर्ण ब्रह्म में ही वृत्ति का गमन होता रहता है । ऐसे साधक एकत्व भावना रूप प्रेमाभक्ति में मस्त रहते हैं । इस प्रकार चिन्तन करने वाले साधक का अनात्म अहंकार निवृत्त हो जाता है । वह फिर अद्वैत ब्रह्म से अरस - परस होकर ब्रह्मानन्द रूप रस में मस्त रहते हैं ।

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