शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४७ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४७ दिन २९ =*
*= श्राद्ध विचार =*
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२९वें दिन प्रातःकाल ही अकबर बादशाह सत्संग के लिये बाग में दादूजी के पास आये और शिर नमाकर प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये बैठ गये फिर बोले - स्वामिन् ! आपने तो कहा है - जीवित रहते हुये ही मुक्ति हो जाती है किंतु आपके अन्य सब हिन्दू तो मरने के पश्चात् श्राद्ध करने से मुक्ति मानते हैं और मृतक की मुक्ति के लिये श्राद्ध करते हैं । उस श्राद्ध का भी तो कुछ फल होता होगा ।
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आपके मत से उसका क्या फल होता है ? वह भी आप कहें । अकबर का उक्त प्रश्न सुनकर दादूजी ने कहा - हे परम सुजान अकबर ! तुम सुनो, मेरे मत से मरने के पश्चात् मुक्ति नहीं होती है । जीवित रहते तो सदा बुरे कर्म करता रहे और मरने पर दूसरों द्वारा श्राद्ध करने से उसकी मुक्ति हो जाय यह कैसे संभव हो सकता है । ऐसा कहकर दादूजी फिर बोले -
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"जीवित मेला ना भया, जीवित परस न होय ।
जीवित जगपति ना मिले, दादू बूड़े सोय ॥
जीवित दुस्तर ना तिरे, जीवित न लंघे पार ।
जीवित निर्भय ना भये, दादू ते संसार ॥
जीवित सु प्रकट ना भया, जीवित परिचय नांहिं ।
जीवित न पाया पीव को, बूडे भौ जल मांहिं ॥
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जीवित पद पाया नहीं, जीवित मिले न जाय ।
जीवित जे छूटे नहीं, दादू गये विलाय ॥
दादू छूटे जीवितां, मूवां छूटे नांहिं ।
मूवां पीछे छूटिये, तो सब आये उस मांहिं ॥
मूवां पीछे मुक्ति बतावे, मूवां पीछे मेला ।
मूवां पीछे अमर अभय पद, दादू भूले गैला ॥
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मूवां पीछे वैकुण्ठ वासा, मूवां स्वर्ग पठावे ।
मूवां पीछे मुक्ति बतावे, दादू जग बोराबे ॥
मूवां पीछे पद पहुँचावे, मूवां पीछे तारैं ।
मूवां पीछे सद्गति होवे, दादू जीवित मारैं ॥
मूवां पीछे भक्ति बतावे, मूवां पीछे सेवा ।
मूवां पीछे संयम राखै, दादू दो जग देवा ॥
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जीवित लूटे जगत सब, मृतक लूटे देव ।
दादू कहां पुकारिये, करि करि मुये सेव ॥
पिंड मुक्ति सब को करे, प्राण मुक्ति नहिं होय ।
प्राण मुक्ति सद्गुरु करे, दादू विरला कोय ॥
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श्राद्ध में भी ब्रह्म ज्ञानी ब्राह्मण को भोजन कराने का विधान है । उसका तात्पर्य भी ज्ञानी को जिमाने से मुक्ति होती है । यही है, अन्य कुछ भी नहीं है । वह मुक्ति मृतक की नहीं होती है । जो भोजन देता है उसकी होती है, वह अपने कर्तव्य का पालन करने से उसके ऋण से मुक्त हो जाता है ।
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मृतक की मुक्ति कहते हैं सो तो रोचक वचन हैं । शास्त्रों में तीन प्रकार के वचन हैं १ - -यथार्थ, २ - - भयानक, ३ - -रोचक । जैसे कटु औषधि बालक नहीं खाता है, तब उसका पिता लड्डू का लोभ देता है । वह कहता है - यदि तू सब औषधि खा जायगा तो तेरे को लड्डू दूंगा । ऐसे ही रुचि बढ़ाने के लिये रुचि वर्धक वचन वेदादिक शास्त्र कहते हैं, उनका तात्पर्य किसी भी निमित्त से शुभ कर्म करना है ।
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किसी भी प्रकार प्राणी पुन्य कर्म में प्रवृत्त होना चाहिये । उससे गृहस्थ को लाभ ही होता है और ज्ञानी के जिमाने से तो भला होता ही है । अन्य सब बातें तो चिवर्धक ही हैं । और जो एक दो ब्राह्मण जिमाने की बात प्रचलित है, उसका तात्पर्य भी यही है कि ज्ञानी जगत् में बहुत नहीं हैं, एक दो ही कहीं किसी स्थान में मिलते हैं । यही वेदादि शास्त्रों का तात्पर्य है । उक्त वेद के तात्पर्य को कोई श्रेष्ठ पुरुष ही जानते हैं ।
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यदि ज्ञानी ब्राह्मण श्राद्ध में नहीं जिमाया जाय तो वह श्राद्ध भी व्यर्थ ही होता है । मुक्ति तो ज्ञान बिना होती ही नहीं है, यह तो वेद उच्च स्वर से कहता ही है । अकबर - भगवन् ! आपके हिन्दू लोग तो काशी में मरणे से भी मुक्ति होना बताते हैं । दादूजी - काशी में मरणे से सालोक्य मुक्ति होती है । कैवल्य मुक्ति तो केवल ज्ञान से ही होती है ।
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फिर अकबर को संतुष्ट देखकर तथा सत्संग का समय समाप्त हो जाने से दादूजी भी मौन गये । अकबरादि भी सब दादूजी को प्रणाम करके अपने-अपने भवनों को चले गये ।
इति श्रीदादू चरितामृत सीकरी सत्संग दिन २९ विन्दु ४७ समाप्त
(क्रमशः)


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