शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

(३४. आश्चर्य को अंग=१२)


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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
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*जो हम खोज करैं अभिअंतरि,* 
*तौ वह खोज उरै हि बिलावै ।* 
*जो हम बाहिर कौ उठि दौरत,* 
*तौ कछु बाहिर हाथ न आवै ॥*
*जो हम काहु कौं पूछत हैं पुनि,*
*सोउ अगाध अगाध बतावै ।* 
*ताहि तैं कोउन जांनि सकैं तिहिं,* 
*सुंदर कौंनसि ठौर रहावै ॥१२॥* 
यदि हम अपने अन्दर उसकी खोज करते हैं तो वह खोज वहाँ तक पहुँचने के पूर्व ही समाप्त हो जाती है । 
यदि हम उसकी बाह्य पदार्थों में खोज करते हैं तो हमें बाह्य पदार्थों में भी उसकी उपलब्धि नहीं होती । 
यदि हम उसके ज्ञान के लिये किसी अन्य देव की पूजा-आराधना में लगते हैं तो वह भी उसको अगाध(गंभीर) ही बताता है । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - अतः हम अब तक नहीं जान सके कि वह वस्तुतः किस स्थान में रहता है ॥१२॥
(क्रमशः)

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