बुधवार, 23 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)५४ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ५४ दिन ३६ =*
*= अकबर का वर माँगना, दादूजी का हरि पर छोड़ने का उपदेश करना =*
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३६वें दिन प्रातःकाल ही अकबर बादशाह सत्संग के लिये दादूजी के पास बाग में आया और प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े हुये सन्मुख बैठ गया फिर कुछ क्षणों के पश्चात् यह विचार करके कि - ये समर्थ संत हैं, इनसे अपने कुल के उद्धार का तथा राज्य अटल रहने का वर माँगूं, यदि ये दे देंगे तो मेरे कुल का उद्धार भी हो जायगा और राज्य भी अटल रह जायगा, बोला - स्वामिन् ! आप तो समर्थ संत हैं, निश्चय ही मेरे संपूर्ण कुल का उद्धार कर सकते हैं । अतः मेरे कुल में जन्मने वाला कोई भी भी व्यक्ति दोजख में नहीं जा सके, सब विहिश्त में ही जायें और मेरे कुल का दिल्ली में राज्य अटल रहे । यह वर आप मुझे अवश्य देने की कृपा करें ।
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अकबर का उक्त कथन सुनकर दादूजी ने कहा - हे हजरत ! तुम तो बालकों जैसी बातें करते हो । परमात्मा की नीति यह है - जो जैसा करता है उसको वैसा ही फल मिलता है । हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहने से कुछ नहीं होता है, अपने सुकर्म से उद्धार होता है ।
"अपने अमलों१ छूटिये, काहू के नांहीं ।
सोई पीड़ पुकारसी, जा दुखे मांहीं ॥
अपने शुभ कर्म१ से प्राणी का उद्धार होता है, अन्य के कर्म से अन्य का उद्धार नहीं होता । जिस शरीर में पीड़ा होती है और जिसके हृदय में दुःख होता है, वही पीड़ा पूर्वक पुकारता है, दूसरा नहीं पुकारता, वैसे ही तुम्हारे कुल में भी जो जन्मादि दुःखों से पीड़ित होकर प्रभु को पुकारेगा अर्थात् प्रार्थना करेगा, उसी का उद्धार होगा । सब कुल का उद्धार कैसे हो सकता है ?
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फूटी नाव समुद्र में, सब डूबण लागे ।
अपना अपना जीव ले, सब कोई भागे ॥
जैसे समुद्र में नौका फूटकर सब डूबने लगते हैं, तब सब अपना २ बचाव करने के लिये प्रयत्न करते हैं, वैसे ही संसार सिंधु में डूबने वालों को अपने उद्धार के लिये स्वयं ही साधन रूप प्रयत्न करना चाहिये । तब ही उद्धार हो सकता है ।
दादू शिर शिर लागी आपणे, कहु कौण बुझावे ।
अपणा अपणा साँच दे, सांई को भावे ॥
जैसे किसी स्थान में बैठे हुये मनुष्यों के समूह में किसी कारण से अग्नि लग जाय तब वे सब अपने-अपने शिर के वस्त्र की ही अग्नि प्रथम बुझायेंगे, दूसरे की कौन बुझायेगा ? वैसे ही सभी को जन्म मरणादि दुःख लगा है । अतः सब को ही अपने-अपने दुःख निवृत्ति का साधन करना चाहिये । यदि स्वयं साधन नहीं करेगा तब तो संतों का उपदेश भी उसका सहायक कैसे हो सकेगा ? अर्थात् संतों के उपदेश के अनुसार साधन करने से उद्धार होता है । जैसे भोजन करने से ही पेट भरता है, भोजन की बातें सुनने मात्र से पेट नहीं भरता है । दूसरे तुमने अपने कुल का दिल्ली में अटल राज्य रहने की बात कही वह भी कैसे हो सकता है ? अटल तो महापुरुषों के शरीर भी नहीं रह सकते, राज्य कैसे रह सकता है ?
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दादू कहां सु मुहमद मीर था, सब नवियों सिरताज ।
सो भी मर माटी हुआ, अमर अलह का राज ॥
देखो धर्माचार्य मुहम्मद किस स्थिति के थे अर्थात् सर्व पैगम्बरों के शिरोमणि माने जाते थे, वे भी मृत्यु को प्राप्त हो गये हैं और उनका शरीर भी मिट्टी में मिल गया है । अतः अटल अर्थात् अमर राज्य तो एक परमात्मा का ही रहता है, अन्य किसी का भी नहीं रह सकता ।
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केते मर माटी भये, बहुत बड़े बलवंत ।
दादू केते हो गये, दाना देव अनन्त ॥
दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल ।
हाकों पर्वत फाड़ते, सो भी खाये काल ॥
कितने ही बहुत बड़े-बड़े बलवान् वीर मर गये हैं और उनके शरीर मिट्टी में मिल गये हैं । कितने ही देवताओं के सामान बलवान् दानव हो गये हैं, जो पृथ्वी की एक डग कर जाते थे और समुदे को एक ही फाल में लांघ जाते थे तथा अपनी हाक से पर्वत को भी फाड़ डालते थे । ये ऐसे-ऐसे बलवान वीर भी काल के द्वारा खाये गये हैं फिर अन्य की क्या आशा है कि वे सदा बने रहेंगे और उनका राज्य अटल रह सकेगा ? अर्थात् एक वंश का सदा अटल राज्य रहना संभव नहीं है । इसलिये ऐसे आशीर्वाद माँगने से क्या लाभ है ?
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इस कलि केते हो गये, हिन्दू मुसलमान ।
दादू साँची बंदगी, झूठा सब अभिमान ॥
साँचा नाम अलाह का, सोई सत कर जाण ।
निश्चल करले बंदगी, दादू सो सु प्रणाम ॥
इस कलियुग में भी कितने ही बड़े-बड़े हिन्दु मुसलमानादि राजा, बादशाह हो गये हैं, वे सब भी मृत्यु को प्राप्त हो गये । अतः किसी का भी अटल राज्य नहीं रह सकता है । प्राणी की सच्ची हितकारिणी तो एक ईश्वर की भक्ति ही है, अन्य राजादि के अभिमान तो मिथ्या ही है । राज्यादिकों से किसी को भी शांति नहीं मिल सकती । शांति का सच्चा साधन तो ईश्वर के नाम का निरंतर चिन्तन ही है; उसी को सत्य जानकर निश्चल भाव से भक्ति करो । यह नाम ही शास्त्र तथा संतों द्वारा प्रभु प्राप्ति का प्रामाणिक सुन्दर साधन कहा गया है । अतः विश्वास तथा विरह पूर्वक सदा नाम का चिन्तन करना चाहिये ।
(क्रमशः)

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