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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२२. विपर्यय शब्द को अंग*
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*जा घर मांहिं बहुत सुख पायौ,*
*ता घर माँहिं बसै अब कौंन ।*
*लागी सबै मिठाई खारी,*
*मीठौ लग्यौ एक वह लौंन ॥*
*पर्वत उडै रुई थिर बैठी,*
*अैसी कोउक बाज्यौ पौंन ।*
*सुन्दर कहै न मांनै कोई,*
*तातैं पकरि बैठि मुख मौंन ॥१०॥*
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*= ह० लि० १ टीका =*
घर = काया । सुख = विषय सुख । मिठाई = विषय स्वाद । लौन = नांम । परबत = पाप तथा आपो अहंकार । रुई = आत्मा । अथवा गरीबी । पौन = ज्ञान ॥१०॥
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*= ह० लि० २ टीका =*
जा कायारूपी घर में अज्ञान अवस्था में बहुत सुख मान्यों हो । अब ज्ञान अवस्था प्राप्ति मैं कौंन बास करै, कौंन सुख मानैं, विवेकी कोई भी सुख नहीं मानैं ।
अज्ञान अवस्था में जो अति मीठा प्रिय विषै बिकार था, सो अब ज्ञान अवस्था में सर्व बिरस होइ गया । आदि मैं आरंभकाल मैं लवनरूप भगवत - भजन सोई एक मीठा लगा - ‘षाती बिरियां षारा लागै मीठा लागै मोड़ा सा’ ।
ऐसा कोई आश्चर्य आनन्दस्वरूप ज्ञान आंधीरूप पवन बाज्यो, अंतःकरण मैं उत्पन्न हूवो, जासों पाप आपो अहंकाररूप पर्वत बड़ा था सो उड़ि गया, रुई नाम नम्रता सो थिर बैठी नाम थिर हुई ।
सो या अति आनन्द विवेकरूपी वार्त्ता को कोंण मानै, कोंण को कहिये, किसी को भी कहण ज्यूं है नहीं(यातें) मौन ही बड़ी बात है ॥१०॥
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*= पीताम्बरी टीका =*
अज्ञानकाल में शरीर विषे तादात्म्य अभ्यास होवै है यातैं यह शरीर सुखरूप भासै है, तातैं सोही मानों ग्रह(घर) है । ऐसा जा घर(शरीर) मांहि संसार-सम्बन्धी बहुत-विषय-सुख पायो । ता घर मांहिं विवेक-युक्त ज्ञान हुवे पीछे अब कौन बसै, कहिये अब तादात्म्य अभ्यास कौन करै । भाव यह है - जौंलौ तादाम्य अभ्यास है तौंलौं शरीर में सुख भासै है, औ ज्ञान हुवै पीछे भासै नहीं ।
इस लोक-सम्बन्धी माला-चंदन-स्त्री अदिक सुख है, और परलोक-सम्बन्धी जो अप्सरा अमृतपानादिक सुख हैं । तिस सुख के भोगरूप(ही) मानों मिठाई है । सो भोगरूप मिठाई विवेक औ वैराग्य करिके खारी लागी, कहिये विरस प्रतीत भई । जब जिज्ञासा होवै नहीं तब ब्रह्मरूप अप्रिय भासै है । औ भाव बिना रसवाला पदार्थ भी विरस प्रतीत होवै है । यातैं यद्पि ब्रह्मस्वरूप मधुर-रस वाला, सर्व कूं प्रिय है तथापि अज्ञानकाल में क्षार-रस-वाला कहिये अप्रिय भासै है, सोई मानों लौन है । सो अज्ञानकाल में वः एक ब्रह्मरूप लौन मीठों लग्यो, कहिये परमानन्दरूप प्रतीत भयो ।
अज्ञानकाल में शरीर के लिए जो अहंकार होवै है और तिसकरि बहिर्मुख मन होवै है सो देह अहंकार अथवा बहिर्मुख मनही मानौ पर्वत है । सो जिसकरि उडै कहिये निवृत्त होवै है । औ अज्ञानकाल में अभिमानते रहित जो वृत्ति होवै है, अथवा जो अंतर्मुख वृत्ति होवै है सो वृत्ति ही मानों रुई है । सो जिस करी थिर बैठी, एसो कोउक पौन कहिये आत्मज्ञानरूप पवन वाज्यो कहिये चलने लग्यो ।
*सुन्दरदासजी कहैं हैं* कि यह आश्चर्य करने वाली कोई अज्ञानी-जन-मानै नहीं, तातैं मौन पकरि बैठिये कहिये अनधिकारी के पास यह गोप्य अनुभव खोलिये नहीं ॥१०॥
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*= सुन्दरदासजी की साषी =*
“जो घर मैं बहुत सुख किये, ता घर लागी आगि ।
सुन्दर मीठौ नां रुचै, लौन लियो, सब त्यागि ॥१२॥
सुन्दर पर्वत उडि गये, रुई रही थिर होइ ।
बाव बज्यौ इहिं भांति कौ, क्यूं करी मानै कोइ” ॥१३॥
तथा-
“मिष्ट सु तौ करवो लाग्यौ, करवो लाग्यौ मीठ ।
सुंदर उलटी बात यह, अपने नैननि दीठ” ॥ ४६॥
(क्रमशः)
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