卐 सत्यराम सा 卐
४२५. करुणा विनती । त्रिताल ~
जनि छाड़ै राम जनि छाड़ै, हमहिं विसार जनि छाड़े ।
जीव जात न लागै बार, जनि छाड़ै ॥ टेक ॥
माता क्यों बालक तजै, सुत अपराधी होइ ।
कबहुँ न छाड़े जीव तैं, जनि दुःख पावै सोइ ॥ १ ॥
ठाकुर दीनदयाल है, सेवक सदा अचेत ।
गुण औगुण हरि ना गिणै, अंतर तासौं हेत ॥ २ ॥
अपराधी सुत सेवका, तुम हो दीन दयाल ।
हमतैं औगुण होत हैं, तुम पूरण प्रतिपाल ॥ ३ ॥
जब मोहन प्राणहि चलै, तब देही किहि काम ।
तुम जानत दादू का कहै, अब जनि छाड़ै राम ॥ ४ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव करुणा विनती कर रहे हैं कि हे समर्थ हमारे स्वामी राम ! हम आपसे बार - बार विनय कर रहे हैं कि आप हमको कभी भूल कर भी नहीं त्यागिये । क्योंकि इस शरीर से जीव को जाने में देर नहीं लगती है, न मालूम कब इसको त्याग कर चला जाय । इसलिये आप हमको कभी भी अपने दया रूप हाथ से नहीं छोड़िये । नल - नील वानरों द्वारा समुद्र में छोड़े गये राम नाम लिखे पत्थर तिर गये, किन्तु हे राम ! आपके हाथ से छोड़े गये पत्थर समुद्र में डूब गये । ऐसे ही आप ही हमें छोड़ देंगे तो हम संसार - सागर में डूब जायेंगे । हे स्वामी ! पुत्र यदि दोषी भी होवे, तब भी माता उसका कभी त्याग नहीं करती है । वह अपने पुत्र को अपने चित्त से कभी भी नहीं त्यागती है और पुत्र कभी दु:ख न पावे, ऐसा प्रयत्न करती रहती है । इसी प्रकार आप हमारे स्वामी दीनदयालु हैं । अपने दास सेवकों की रक्षा के लिये सदा आप सचेत रहते हैं । हे हरि ! आप शरीरों के सुरूप, कुरूप आदि गुण - अवगुण भी नहीं देखते हैं और जो भक्तों के हृदय में भाव - भक्ति प्रेम है, उसी को आप लेते हैं । परन्तु हम तो आपके अति अपराधी सुत सेवक हैं तथा आप दीन दयाल हैं । हमारे से तो सदैव अवगुण ही होते जा रहे हैं, किन्तु हे दयालु ! आप तो फिर भी हमारी पूर्ण रूप से रक्षा ही कर रहे हैं । हे मनमोहन ! जब यह जीव चला जायेगा, तो शरीर फिर किस काम का है ? यह सब आप जानराय, जानते हैं । मैं आपसे क्या कहूँ ? हमारी तो आपसे यही प्रार्थना है कि आप अब हमको न त्यागिये ।
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