शनिवार, 5 दिसंबर 2015

= विन्दु (१)४८ =

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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"*
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ।*
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*= विन्दु ४८ दिन ३० =*
*= भ्रम पूर्ण कर्मों का त्याग ही उचित =*
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३०वें दिन सूर्योदय होने पर अकबर बादशाह सत्संग के लिये बाग में दादूजी के पास आये और प्रणाम करके हाथ जोड़े हुये सन्मुख बैठ गये । फिर बोले - स्वामिन् ! आपके हिन्दुओं में गंगा यमुना आदि को तीर्थ मान कर जाते हैं और बहुत से यज्ञादि कर्म करते हैं, उनका क्या फल होता है ? उसे ही आज मुझे बताने की कृपा
अवश्य करें ।
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अकबर का उक्त प्रश्न सुन कर दादूजी बोले - हिंसा रहित निष्काम भाव से जो शुभ कर्म किये जाते हैं, उन पुण्य कर्मों से अन्तःकरण शुद्ध होता है, अतः उनका फल तो अच्छा ही है, उनसे तो प्राणी का भला ही होता है -
"सुकृत मारग चालतां, बुरा न कब हूँ होय ।
अमृत खातां प्राणियां, मुवा न सुनिया कोय ॥"
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सत्य भाषणादिक विधि सहित तीर्थ यात्रा या यज्ञादिक कर्म किये जाते हैं तब तो अच्छा ही फल मिलता है और विपरीत करने से तो नरक ही मिलेगा -
दादू जहँ तरिये तहँ डूबिये, मन मैं मैला होय ।
जहँ छूटे तहँ बंधिये, कपट न सीझे कोय ॥
काया कर्म लगाय कर, तीरथ धोवे आय ।
तीरथ मांहीं कीजिये, सो कैसे कर जाय ॥
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तीर्थ निवासी भी यदि नाना पाप कर्मों में प्रवृत्त हों तो उनको भी पाप ही लगेगा । अन्य स्थान में किये हुये पापों को धोने के लिये तो तीर्थ यात्रा करते हैं किंतु तीर्थ में ही पाप किया जायगा तो उसको धोने के लिये कहां जायेंगे । वह पाप तो भोगे बिना मिट ही नहीं सकता और यदि तीर्थ के पण्डे भी पाप कर्मों में प्रवृत्त हों तो उनको दान देने से भी पुण्य नहीं हो सकता ।
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पाप कर्मों में लगे हुओं को संतोष तो होता ही नहीं है, उनमें तो तृष्णा ही प्रबल रहती है । उनके मन में निरंतर लेने की इच्छा ही बनी रहती है । उनको देने से भी पुण्य का लाभ नहीं हो सकता । ऐसी स्थिति में सत्संग रूप तीर्थ ही श्रेष्ठ है । सभी ऋषि, महर्षि, संत शास्त्रादि ने एक स्वर से सत्संग की महिमा की है । सत्संग की समता तो स्वर्ग तथा ब्रह्म लोक भी नहीं कर सकते । तीर्थों को भी संत ही तीर्थ बनाते हैं, यह अति प्रसिद्ध है ।
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जब गंगा से महाराज भगीरथ ने प्रार्थना की कि आप मृत्यु लोक में पधारें तब गंगा ने कहा था - मृत्यु लोक के मानव मुझ में अपने पाप धोयेंगे, फिर उस पाप को मैं कहां धोऊंगी ? तब भगीरथ ने कहा था - आपके पापों को जब आप में स्नान करने ब्रह्मनिष्ठ शांताराम विरक्त संत आयेंगे तब वे अपने शरीर के स्पर्शरूप संबन्ध से नष्ट कर देंगे ।
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गंगा ने पूछा - वे किस शक्ति से मेरे पाप नष्ट करेंगे ? भगीरथ - पापों को हरने वाले हरि उनके हृदय में चिन्तन द्वारा विशेष रूप में रहते हैं, उस हरि की शक्ति से ही वे आपके सर्वपाप नष्ट कर दिया करेंगे । यह सुनकर गंगा को प्रसन्नता हुई थी, कारण भगीरथ ने यह यथार्थ ही कहा था ।
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इसलिये हे अकबर ! तुम भी सत्संग को सबसे महान् समझ कर सदा संतों के सत्संग से लाभ उठाया करो । सत्संग से सदा लाभ ही होता है । और यज्ञादिक कर्म(यज्ञ, बावड़ी, कूप, तालाब, मंदिर, धर्मशालादिक बनवानादि) जो किये जाते हैं, उनमें भी हिंसा होती है । इससे उनके द्वारा सर्वथा पाप नष्ट नहीं होकर पाप उत्पन्न भी होते हैं ।
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यह निश्चित ही है कि कर्म से कर्म नहीं कटते -
"दादू कर्में कर्म काटे नहीं, कर्में कर्म न जाय ।
कर्में कर्म छूटे नहीं, कर्में कर्म बँधाय ॥
पाप कर्मों द्वारा पाप कर्म नहीं कटते हैं । सकाम कर्मों के द्वारा पूर्व किये संचित कर्म नष्ट नहीं होते हैं । निष्काम कर्मों के करने से भी प्रारब्ध कर्म भोगे बिना नहीं छूटते हैं । अपितु ज्ञान बिना तो सर्वकर्म ही कर्ममय संसार में ही बाँधते हैं ।
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और जैसे कीचड़ से कीचड़ नहीं धुपता तथा मदिरा से धोने पर मदिरा का पात्र शुद्ध नहीं होता, वैसे ही जीवों के मारने का पाप यज्ञ करने से नष्ट नहीं होता । क्यों ? यज्ञ में भी तो जीव मरते हैं । यह कहकर दादूजी बोले -
"दादू बाँधे वेद विधि, भरम कर्म उरझाय ।
मरजादा मांहीं रहै, सुमिरण किया न जाय ॥
नाम नीति अनीति सब, पहले बाँधे बंध ।
पशु न जाने पारधी, दादू रोपे फंद ॥
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दादू पंथ बतावे पाप का, भरम कर्म विश्वास ।
निकट निरंजन जो रहे, क्यों न बतावे तास ॥
आपा उरझे उरझिया, दीसै सब संसार ।
आपा सुरझे सुरझिया, यह गुरु ज्ञान विचार ॥
पहले हम सब कुछ किया, भरम कर्म संसार ।
दादू अनुभव ऊपजी, राते सिरजन हार ॥
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कर्म फिरावे जीव को, कर्मों को करतार ।
करतार को कोउ नहीं, दादू फेरण हार ॥
सब हम देखा सोधिकर, वेद कुरानों मांहिं ।
जहां निरंजन पाइये, सो देश दूर इत नांहिं ॥
दादू सांई को सँभालतां, कोटि विघ्न टल जाय ।
राई मान बसंदरा(अग्नि), केते काठ जलाय ॥
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इतना कहकर दादूजी मौन हो गये फिर अकबर ने भी कोई प्रश्न नहीं किया । परम तृप्त होकर बैठा रहा । कुछ देर के पश्चात् अकबर ने खड़े होकर दादूजी को प्रणाम किया और जाने की आज्ञा मांगकर राज भवन को चला गया । अन्य सब श्रोता भी दादूजी को प्रणाम कर अपने २ भवनों को चले गये ।
= इति श्री दादूचरितामृत सीकरी सत्संग दिन ३० विन्दु ४८ समाप्तः =
(क्रमशः)

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