शनिवार, 5 दिसंबर 2015

पद. ४१३

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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४१३. विरह विनती । पंजाबी त्रिताल ~
मेरे जीव की जानै जानराइ, तुम तैं सेवक कहा दुराइ ॥ टेक ॥ 
जल बिन जैसे जाइ जिय तलफत, तुम्ह बिन तैसे हमहु विहाइ ॥ १ ॥ 
तन मन व्याकुल होइ विरहनी, दरश पियासी प्राण जाइ ॥ २ ॥ 
जैसे चित्त चकोर चंद मन, ऐसे मोहन हमहि आहि ॥ ३ ॥ 
विरह अगनि दहत दादू को, दर्शन परसन तनहि सिराइ ॥ ४ ॥ 
इति राग जैत श्री सम्पूर्ण ॥ २७ ॥ पद २ ॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव विरहपूर्वक विनती कर रहे हैं कि हे समर्थ परमेश्‍वर ! घट घट की जानने वाले जानराइ अन्तर्यामी ! हमारे जीव के इस विरहरूपी दर्द को आप ही जानते हो । हम आपके विरहीजन सेवक आपसे क्या छिपावें ? हे मोहन ! जैसे जल की प्राप्ति के बिना प्यासे मनुष्य का जीव तड़फता रहता है, ऐेसे ही आपके दर्शन किये बिना हमारा समय बीत रहा है । हे नाथ ! अब तो हम विरहीजनों का तन - मन व्याकुल हो रहा है । आपके दर्शनों के बिना, हमारे प्राण आपके वियोग में ही निकल जाएँगे । हे मनमोहन ! जैसे चन्द्रमा के दर्शनों के लिये चकोर व्याकुल होकर देखता है, ऐसी स्थिति हमारी हो रही है । ब्रह्मऋषि कहते हैं, यह आपकी वियोग - जन्य विरह रूप अग्नि हमको जला रही है । हे नाथ ! हम विरहीजनों को आप अपना दर्शन दीजिए । आपके दर्शन का स्पर्श करके ही हम विरहीजनों का तन शीतलता को प्राप्त होगा ।
इति राग जैत श्री टीका सहित सम्पूर्ण ॥ २७ ॥ पद २

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