शनिवार, 5 दिसंबर 2015

(३४. आश्चर्य को अंग=१३)

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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*३४. आश्चर्य को अंग*
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*नैंन न बैंन न सैंन न आस न,* 
*वास न स्वास न प्यास न यातैं ।* 
*सीत न घांम न ठौर न ठांम न,* 
*पुंस न वाम न बाप न मातैं ॥* 
*रूप न रेख न सेख असेख न,* 
*श्वेत न पीत न स्यांम न तातैं ।* 
*सुंदर मौंन गही सिध साधक,* 
*कौंन कहै उसकी मुख बातैं ॥१३॥* 
*ब्रह्म अवर्णनीय* : जो न देखता है, न बोलता है, न उसकी कोई शारीरिक चेष्टा है; न उसका कोई आशय है, न कोई वास है, न स्वास है, न तृष्णा है । 
न उसको कोई शीत घाम अदि द्वन्द दुःखी कर पाते हैं, न उसका कोई बैठने का स्थान है, न आवास । न वह स्त्री है न पुरुष, न उसका कोई पिता है न माता । 
उसका न कोई रूप है, न आकार । न वह शैक्ष्य है न अशैक्ष्य । न श्वेत है, न पीत; न कृष्ण है न रक्त । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं अतः अच्छे अच्छे पहुँचे हुए सिद्ध साधकों ने भी उसके विषय में कुछ कहना ही छोड़ दिया है; क्योंकि बुद्धिमान् आदमी उस के विषय में बोल कर क्यों कष्ट उठावें जब कि वह उसका वास्तविक वर्णन करने में समर्थ नहीं है ॥१३॥
(क्रमशः)

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